* जीवाश्मों की आयु का आंकलन :
(i) खुदाई द्वारा /सापेक्ष पद्धति द्वारा : खुदाई करने पर पृथ्वी की सतह के निकट वाले जीवाश्म गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्मों की तुलना में अधिक नए होते है जबकि गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्म पुराने होते है |
(ii) फॉसिल डेटिंग (Fossil Dating) द्वारा : जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिको का अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय-निर्धारित किया जाता है | इसमें कार्बन-14 समस्थानिक जो सजीवों में उपस्थित होता है, का उपयोग किया जाता है जिसमें सजीव के जीवाश्म में उपस्थित कार्बन-14 रेडियोएक्टिवता होती है जो समय के साथ धीरे-धीरे घटता जाता है | इसी रेडियोएक्टिवता की तुलना करके जीवाश्मों की आयु का पता लगाया जाता है |
* डार्विन का विकास सिद्धांत :
प्रजनन की असीम क्षमता धारण करते हुए भी किसी भी जीवधारी की जनसंख्या एक सीमा के अंदर ही नियंत्रित रहती है। यह आपसी संर्धष के कारण है जो एक जाति के सदस्यो के बीच अथवा विभिन्न जातियो के सदस्यो के बीच भोजन, स्थान एवं जोडी के लिए होता रहता है। इस संर्धष से व्यष्टियां लोप हो जाती हैं। और एक नई जाति का उदभव होता है। इसे ही डार्विन के विकास का सिद्धांत कहते हैं | डार्विन द्वारा प्रस्तावित विकास के सिद्धांत को 'प्राकृतिक वरण का सिद्धांत' भी कहा जाता है | इन्होने इस सिद्धांत को अपनी पुस्तक "The Origin of Species" में वर्णन किया है |
* इस सिद्धांत के अनुसार :
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(i) किसी भी समष्टि के अंदर प्राकृतिक रूप से विविधता (variation) होता है जबकि उसी समष्टि के कुछ व्यष्टियों में अन्य के अपेक्षा अधिक अनुकूलित विविधता होती है |
(ii) प्रजनन की असीम क्षमता धारण करते हुए भी किसी भी जीवधारी की जनसंख्या एक सीमा के अंदर ही नियंत्रित रहती है।
(iii) यह आपसी संर्धष के कारण है जो एक जाति के सदस्यो के बीच अथवा विभिन्न जातियो के सदस्यो के बीच भोजन, स्थान एवं जोडी के लिए होता रहता है। इस संर्धष से व्यष्टियां लोप हो जाती हैं।
(iv) जो व्यष्टियाँ अनुकूलित होती है और जिनमें विविधता होती है वे ही अपनी उत्तरजीविता को बनाए रखती हैं, और वे इन अनुकूलित विविधता को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ियों में हस्तांतरित करते हैं |
(v) जब ये विविधताएँ लंबे समय तक संचित होती रहती है तो जीव अपने मूल समष्टि से भिन्न दिखाईदेने लगता है और एक नयी जाति (species) की उत्पति होती है |
* भ्रौणिकी (भ्रुण सम्बंधी) के अघ्ययन से विकास का प्रमाण :
कशेरूकी जंतुओं के भ्रुणों के अध्ययन से पता चलता है कि इनका विकास मछली जैसे पूर्वजों से हुआ है । मछली , पक्षी तथा मनुष्य की भ्रुणों की पहली अवस्था लगभग समान होती है जिसके गहन अध्ययन से पता चलता है कि सभी में गिल दरारें तथा नोटोकार्ड होते है ।
पृथ्वी पर जीवों की उत्पति : एक ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन (जो बाद में भारत के नागरिक हो गए थे।) ने 1929 में यह सुझाव दिया कि जीवों की सर्वप्रथम उत्पत्ति उन सरल अकार्बनिक अणुओं से ही हुई होगी जो पृथ्वी की उत्पत्ति के समय बने थे। उसने कल्पना की कि पृथ्वी पर उस समय का वातावरण, पृथ्वी के वर्तमान वातावरण से सर्वथा भिन्न था। इस प्राथमिक वातावरण में संभवतः कुछ जटिल कार्बनिक अणुओं का संश्लेषण हुआ जो जीवन के लिए आवश्यक थे। सर्वप्रथम प्राथमिक जीव अन्य रासायनिक संश्लेषण द्वारा उत्पन्न हुए होंगे।
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* जटिल अंगों का विकास एवं उनमें भिन्नता का कारण :
(i) इसका प्रमुख कारण अलग-अलग विकासीय उत्पत्ति है |
(ii) इनके डीएनए में परिवर्तन जो उनकी क्रमिक विकास के रूप में दिखाई देता है वह वास्तव में अनेक पीढ़ियों के हुआ है |
(iii) आँख या अन्य कोई अंग का चयन उसकी उपयोगिता के आधार पर होता है |
(iv) प्राकृतिक चयन भी इसका प्रमुख कारण है |
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