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Wednesday 2 November 2016

* मानव में लैंगिक जनन :

* मानव में लैंगिक जनन :
मनुष्य में लैंगिक जनन के लिए लैंगिक जनन के लिए उत्तरदायी कोशिकाओं का विकास बहुत ही आवश्यक है | इन कोशिकाओं को जनन कोशिकाएँ कहते है |

 इन कोशिकाओं का विकास मनुष्य के जीवन काल के एक विशेष अवधि में होता है, जिसमें शरीर के विभिन्न भागों में विशेष परिवर्तन होते हैं |

 विशेषतया जनन कोशिकाओं में परिवर्तन होते है | जैसे-जैसे शरीर में समान्य वृद्धि दर धीमी होती है जनन-उत्तक परिपक्व (Mature) होना आरंभ करते हैं |
* किशोरावस्था (Adolescence) :
वृद्धि एक प्राकृतिक प्रक्रम है। जीवन काल की वह अवधि जब शरीर में ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसके परिणामस्वरूप जनन परिपक्वता आती है, किशोरावस्था कहलाती है।


यौवनारंभ (Puberty) : किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें लैंगिक विकास सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होती है उसे यौवनारंभ कहते हैं | यौवनारंभ का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन लड़के एवं लड़कियों की जनन क्षमता का विकास होता है |

दुसरे शब्दों में, किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें जनन  उतक परिपक्व होना प्रारंभ करते है । यौवनारंभ कहा जाता है ।
यौवनारंभ की शुरुआत : लड़कों तथा लडकियों में यौवनारंभ निम्न शारिरिक परिवर्तनों के साथ आरंभ होता है ।
लडकों में परिवर्तन - दाढ़ी मूँछ का आना , आवाज में भारीपन, काँख एवं जननांग क्षेत्र में बालों का आना , त्वचा तैलिय हो जाना, आदि ।


लडकियों में परिवर्तन - स्तन के आकार में वृद्धि होना, आवाज में भारीपन, काँख एवं जननांग क्षेत्र में बालों का आना , त्वचा तैलिय हो जाना, और रजोधर्म का होने लगना , जंघा की हडियो का चौडा होना, इत्यादि।
लडकियों में यौवनारंभ 12 - 14 वर्ष में होता है जबकि लडको में यह 13 - 15 वर्ष में आरंभ होता है ।


* द्वितीयक या गौण लैंगिक लक्षण (Secondry Sexual Characters): 
गौंड लैंगिक लक्षण वे लक्षण है जो यौवनारंभ के दौरान वृषण एवं अंडाशय शुक्राणु एवं अंडाणु उत्पन्न करते है तथा लडकियों में स्तनों का विकास होने लगता है तथा लडकों के चेहरे पर बाल उगने लगते हैं अर्थात् दाढ़ी-मूॅछ आने लगती है। ये लक्षण क्योंकि लड़कियों को लड़कों से पहचानने में सहायता करते हैं अतः इन्हें गौण लैंगिक लक्षण कहते हैं।
* शारीरिक परिवर्तनों की सूची :
(i) लंबाई में वृद्धि ।
(ii) शारीरिक आकृति में परिवर्तन ।
(iii) स्वर में परिवर्तन ।
(iv) स्वेद एवं तैलग्रेथियों की क्रियाशीलता में वृद्धि ।
(v) जनन अंगो का विकास ।
(vi) मानसिक, बौद्धिक एवं संवेदनात्मक परिपवक्ता ।
(vii) गौंड लैंगिक लक्षण   
* रजोदर्शन : यौवनारंभ के समय रजोधर्म के प्रारंभ को रजोदर्शन कहते है।
यह 12 से 14 वर्ष की आयु की युवतियो में प्रारंभ होता हैं ।
रजोनिवृति (Menopause) : जब स्त्रियो के रजोधर्म 50 वर्ष की आयु में ऋतुस्राव तथा अन्य धटना चक्रो की समाप्ती रजोनिवृति कहलाती है।


आवर्त चक्र (Menstrual Cycle) : प्रत्येक 28 दिन बाद अंडाशय तथा गर्भाशय में होनें वाली घटना ऋतुस्राव द्धारा चिन्हित होती है तथा आर्वत चक्र या स्त्रियों का लैगिक चक्र कहलाती है।
लैंगिक परिवर्तन (Sexual changes) : किशोरावस्था में होने वाले ये सभी परिवर्तन एक स्वत: होने वाली प्रक्रिया है जिसका उदेश्य लैंगिक परिपक्वता (Maturity) है | लैंगिक परिपक्वता 18 से 19 वर्ष की आयु में लगभग पूर्ण हो जाती है, जिसका आरंभ यौवनारंभ से शुरू होता है |


संवेदनाओं में परिवर्तन : इस अवधि में होने वाले परिवर्तनों में महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से है मानसिक, बौद्धिक एवं संवेदनाओं में परिवर्तन |
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* जनन की प्रक्रिया (The Process of Reproduction) :

* जनन की प्रक्रिया (The Process of Reproduction) :
परागकणों का वर्तिकाग्र पर स्थानांतरण
परागण
परागित परागकण का वर्तिका से होते हुए बीजांड तक पहुँचाना
निषेचन
युग्मनज का निर्माण
भ्रूण का विकसित होना
बीज का निर्माण
अंकुरण
* नए पौधा का जन्म 
परागण (Pollination) : परागकणों का परागकोश से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण होने की प्रक्रिया को परागण कहते है।
* परागण दो प्रकार के होते है।          
1. स्वपरागण (Self Pollination)
2. परापरागण (Cross Pollination)
1. स्वपरागण (Self Pollination) :
जब एक पुष्प के परागकोश से उसी पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणो का स्थानान्तरण स्व - परागण कहलाता है।
2. परापरागण (Cross Pollination) :
जब एक पुष्प के पराकोष से उसी जाति के अन्य दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणो का स्थानान्तरण होता है तो परा - परागण कहलाता है |
* परापरागण के कारक :
एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक परागकणों का यह स्थानांतरण वायु, जल अथवा प्राणी जैसे वाहक द्वारा संपन्न होता है।
1. भौतिक कारक : वायु तथा जल
2. जन्तु कारक : कीट तथा कीड़े-मकौड़े जैसे - तितली, मधु-मक्खी इत्यादि |
* अंकुरण (Germination) :
बीज में भावी पौधा अथवा भ्रूण होता है जो उपयुक्त परिस्थितियों में नए संतति में विकसित हो जाता है। इस प्रक्रम को अंकुरण कहते हैं। 
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* पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants) :

* पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants) :
पुष्पी पादपों में जननांग : ( function() { if (window.CHITIKA === undefined) { window.CHITIKA = { 'units' : [] }; }; var unit = {"calltype":"async[2]","publisher":"nikhil944","width":550,"height":250,"sid":"Chitika Default"}; var placement_id = window.CHITIKA.units.length; window.CHITIKA.units.push(unit); document.write('
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मादा जननांग : स्त्रीकेसर
स्त्रीकेसर के भाग : वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय |
नर जननांग : पुंकेसर |
पुंकेसर के भाग : परागकोष तथा तंतु |
* पुष्प दो प्रकार के होते हैं :
(i) एकलिंगी पुष्प (unisexual flower) :जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है तो ऐसे पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं | उदाहरण: पपीता, तरबूज इत्यादि।
(ii) द्विलिंगी या उभयलिंगी पुष्प (Bisexual flower):  जब एक ही पुष्प में पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो उन्हें उभयलिंगी पुष्प कहते हैं। उदाहरण:  गुड़हल, सरसों इत्यादि |
पुंकेसर : पुंकेसर नर जननांग है जो तंतु तथा परागकोश से मिलकर बना है | यह परागकणों को बनाता है |
* पुंकेसर का कार्य:
(i) यह नर जननांग है जो परागकण बनाता है।
परागकोश () : परागकोश परागकणों को संचय करता है |         
परागकण (Pollen grains) : परागकण पौधों में नर युग्मक है जो सामान्यत: पीले रंग का पाउडर जैसा चिकना पदार्थ होता है |
स्त्रीकेसर : यह मादा जननांग है जो वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय से मिलकर बना है | यह पुष्प के केंद्र में अवस्थित होता है |
वर्तिकाग्र : यह पुष्प का वह मादा भाग है जिस पर परागण की क्रिया होती है | यह चिपचिपा होता है |
वर्तिका : यह एक नलिकाकार भाग है जो वर्तिकाग्र और अंडाशय को जोड़ता है |
अंडाशय : पुष्प के केंद्र में स्थित होता है इसमें बीजांड होता है और प्रत्येक बीजांड में एक अंड-कोशिका होता है, जहाँ निषेचन के पश्चात् भ्रूण बनता है |
* स्त्रीकेसर का कार्य :
स्त्राीकेसर मादा जननांग है जो वर्तिकाग्र , वर्तिका और अंडाशय से मिलकर बना है।
कार्य:
(i) वर्तिकाग - यहाँ परागण की क्रिया होती है।
(ii) वर्तिका - वर्तिका को परागनली भी कहा जाता हैं । यह नर युग्मक को अंडाशय तक पहुँचाता है।
(iii) अंडाशय - अंडाशय पुष्प का एक प्रमुख मादा जननांग है जहाँ संलयन (निषेचन) की क्रिया होती है और भुण्र का निर्माण होता है।
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* एक-कोशिक एवं बहुकोशिक जीवों की जनन पद्धति में अंतर :

* एक-कोशिक एवं बहुकोशिक जीवों की जनन पद्धति में अंतर :
एक कोशिकिय जीवों में जनन की अलैंगिक विधियॉ ही कार्य करती है। जिनमें एक ही जनन कोशिका अन्य संतति कोशिकाओं में विभाजित हो जाती है। एक कोशिकिय जीवों में केवल एक जनक की आवश्यकता होती है।  बहु कोशिकिय जीवों में प्रायः लैंगिक जनन होता है। इसमें नर तथा मादा जीव की आवश्यकता होती है। जनन के लिए विशेष अंग होते है तथा शरीर में इनकी स्थिति निश्चित होती है।
डी. एन. ए. की प्रतिकृति में त्रुटियों का महत्त्व :
डी. एन. ए. की प्रतिकृति में परिणामी त्रुटियाँ जीवों की समष्टि (जनसंख्या) में विभिन्नता का स्रोत हैं । जो उनकी समष्टि को बचाएँ रखने में सहायक है।
त्रुटियाँ आने की प्रक्रिया निम्न है :
जीवों में जैव-रासायनिक प्रक्रिया
प्रोटीन संश्लेषण
कोशिकाओं या जनन कोशिकाओं का निर्माण
डी. एन. ए. की प्रतिकृति का बनना
प्रतिकृति बनने के दौरान त्रुटियों का आ जाना
त्रुटियाँ से विभिन्नताओं का आना         
संतति में गुणसूत्रों की संख्या एवं डी. एन. ए की मात्रा का पुनर्स्थापन :
जनन अंगों में कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं की परत होती है जिनमें जीव की कायिक कोशिकाओं की अपेक्षा गुणसूत्रों की संख्या आधी होती हैं | ये कोशिकाएँ युग्मक कोशिकाएँ होती है जो दो भिन्न जीवों से होने के कारण लैंगिक जनन में युग्मन द्वारा युग्मनज (gygote) बनाती है | जब जायगोट बनता है तो दोनों कोशिकाओं से आधे गुणसूत्र और आधी-आधी डीएनए की मात्रा मिलकर एक पूर्ण जीव में उपस्थित गुणसूत्र और डीएनए की मात्रा को पूरी कर लेता है | इसप्रकार संतति में गुणसूत्रों की संख्या एवं डीएनए की मात्रा पुनर्स्थापित हो जाती है |
लैंगिक जनन के अध्ययन को हम दो भागों में बाँटते है |
A. पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants)
B. जंतुओं में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Animals)
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* लैंगिक जनन (Sexual Reproduction)

* लैंगिक जनन (Sexual Reproduction) :
जनन की वह विधि जिसमें नर एवं मादा दोनों भाग लेते हैं | लैंगिक जनन कहलाता है |
दुसरे शब्दों, जनन की वह विधि जिसमें नर युग्मक (शुक्राणु) और मादा युग्मक (अंडाणु) भाग लेते है, लैंगिक जनन कहलाता है |
निषेचन (Fertilisation): नर युग्मक (शुक्राणु) और मादा युग्मक (अंडाणु) के संलयन को निषेचन कहते है |
नर युग्मक : गतिशील जनन-कोशिका को नर युग्मक कहते है |
मादा युग्मक : जिस जनन कोशिका में भोजन का भंडार संचित होता है उसे मादा युग्मक कहते हैं |  
* लैंगिक जनन के लाभ :
लैगिंक उच्च विकसित प्रक्रिया है तथा इसके अलैगिक जनन की तुलना में अनेक लाभ है।
(i) लैंगिक जनन, संततियों में गुणों को बढावा देता है क्योंकि इसमें दो भिन्न तथा लैंगिक असमानता वाले जीवों से आयें युंग्मकों का संलयन होता है।
(ii) लैंगिक जनन में वर्णो के नए संयोजन के अवसर होता है।
(iii) यह नई जातियों की उत्पति में महत्वपूर्ण भुमिका निभाता है।
(iv) इस जनन द्वारा उत्पन्न जीवों में काफी विभिन्नताएँ होती है |
इस विधि से उत्पन्न संतति शारीरिक रूप से जनक से भिन्न होते है परन्तु डीएनए स्तर पर समान होते हैं |
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* जीवों में विभिन्नता कैसे आती है ?

* जीवों में विभिन्नता कैसे आती है ?
जनन के दौरान जनन कोशिकाओं में डी. एन. ए. की दो प्रतिकृति (copy) बनती है इसके साथ-साथ दूसरी कोशिकीय संरचनाओं का सृजन भी होता है, और प्रतिकृतिया जब अलग होती हैं तो एक कोशिका विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाती है | चूँकि कोशिका के केन्द्रक के डी. एन. ए. में प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचनाएँ भिन्न होती हैं इसलिए बनने वाले प्रोटीन में भी भिन्नता आ जाती है | ये सभी जैव-रासायनिक प्रक्रिया होती है जिसमें डी. एन. ए. की प्रतिकृति बनने के दौरान ही भिन्नता आ जाती है यही जीवों में विभिन्नता का कारण है |
* जीवों में विभिन्नता का महत्त्व:
(i) विभिन्नताओं के कारण ही जीवों कि समष्टि परितंत्र में स्थान अथवा निकेत ग्रहण करती हैं |
(ii) विभिन्नताएँ समष्टि में स्पीशीज की उत्तरजीविता बनाए रखने में उपयोगी है |
(iii) जीवों में पायी जाने वाली विभिन्नताएँ ही जैव-विकास का आधार है | चूँकि जबतक संतति में विभिन्नताएँ न हो जैव-विकास नहीं कहा जा सकता है |
(iv) विभिन्नताएँ परिवर्तनशील परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता प्रदान करती है । 
* विभिन्नताएँ जीवों की स्पीशीज के उत्तरजीविता के लिए उत्तरदायी है :
जीवों में विभिन्नता ही उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में बने रहने में सहायक हैं। शीतोष्ण जल में पाए जाने वाले जीव़ पारिस्थितिक तंत्र के अनुकुल जीवित रहते है। यदि वैश्विक उष्मीकरण के कारण जल का ताप बढ जाता हैं तो अधिकतर जीवाणु मर जाएगें, परन्तु उष्ण प्रतिरोधी क्षमता वाले कुछ जीवाणु ही खुद को बचा पाएगें और वृद्धि कर पाएगें । अतः जीवों में विभिन्नता स्पीशीज की उतरजीविता बनाए रखने में उपयोगी हैं ।
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* शारीरिक अभिकल्प में विविधता का कारण:

* शारीरिक अभिकल्प में विविधता का कारण:
शरीर का अभिकल्प समान होने के लिए जनन जीव के अभिकल्प का ब्लूप्रिंट तैयार करता है। परन्तु अंततः शारीरिक अभिकल्प में विविधता आ ही जाती है।
क्योंकि कोशिका के केन्द्रक में पाए जाने वाले गुणसूत्रों के डी. एन. ए. के अणुओं में आनुवांशिक गुणों का संदेश होता है जो जनक से संतति पीढी में जाता है ।
कोशिका के केन्द्रक के डी. एन. ए.  में प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना निहित होती हैं इस सूचना के भिन्न होने की अवस्था में बनने वाली प्रोटीन भी भिन्न होगी । इन विभिन्न प्रोटीनों के कारण अंततः शारीरिक अभिकल्प में विविधता आ ही जाती है।
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