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Thursday 3 November 2016

* वंशानुगत लक्षण:

* वंशानुगत लक्षण:

(i) प्रभावी लक्षण (Dominent Traits): माता-पिता के वे वंशानुगत लक्षण जो संतान में दिखाई देते हैं प्रभावी लक्षण कहलाते हैं | उदाहरण: मेंडल के प्रयोग में लंबा पौधा का "T" लक्षण, प्रभावी लक्षण है जो अगली पीढ़ी F1 में भी दिखाई देती है |

(ii) अप्रभावी लक्षण (Recessive Traits): माता-पिता सेआये वे वंशानुगत लक्षण जो संतान में छिपे रहते हैं अप्रभावी लक्षण कहलाते हैं |

(A) जीनोटाइप (Genotypes) : जीनोटाइप एक जीनों का समूह है जो किसी एक विशिष्ट लक्षणों के लिए उत्तरदायी होता है | यह अनुवांशिक सुचना होता है जो कोशिकाओं में होता है तथा यह व्यष्टि में हमें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है |

यह दो alleles के भीतर निहित सूचनाएँ होती है जिन्हें निरिक्षण द्वारा देखा नहीं जा सकता बल्कि जैविक परीक्षणों से पता लगाया जाता है | यह सूचनाएँ वंशानुगत लक्षण होते है जो माता-पिता से अगली पीढ़ी में आती हैं |

* जिनोंटाइप का उदाहरण:

(a) आँखों के रंग के लिए उत्तरदायी जीन |

(b) बालों के रंग के लिए उत्तरदायी जीन

(c) लंबाई के लिए उत्तरदायी जीन |

(d) आनुवंशिक बिमारियों के लिए उत्तरदायी जीन आदि |

* जीनोटाइप बदलाव निम्न तरीकों से किया जा सकता है :

(i) जीन या गुणसूत्रों में परिवर्तन करके |

(ii) जीनों का पुन:संयोजन करके |

(iii) जीनों का संकरण करके |

(A) फिनोटाइप (Phenotypes): दृश्य एवं व्यक्त लक्षण जो किसी जीव में दिखाई देता है जो जीनोटाइप पर निर्भर करता है फिनोटाइप लक्षण कहलाता है | परन्तु यह पर्यावरणीय कारकों द्वारा प्रभावित हो सकता है | यह जीन के सूचनाओं का व्यक्त रूप होता है | इसका पता मात्र सधारण अवलोकन के द्वारा लगाया जा सकता है | जैसे - आँखों का रंग, बालों का रंग, ऊँचाई, आवाज, कुछ बीमारियाँ, कुछ निश्चित व्यव्हार आदि से |

मेंडल द्वारा लिए गए मटर के कुल लक्षण (Characters): मेंडल ने अपने प्रयोग में मटर के कुल सात विकल्पी लक्षणों को लिया था | जो इस प्रकार था |

1. बीजों का आकार - गोल एवं खुरदरा

2. बीजों का रंग - पीला एवं हरा

3. फूलों का रंग - बैंगनी एवं सफ़ेद

4. फली का आकार - चौड़ा और भरा हुआ एवं चपटा और सिकुड़ा हुआ

5. फली का रंग - हरा एवं पीला

6. फूलों की स्थिति - एक्सिअल एवं टर्मिनल

7. तने की ऊँचाई - लंबा एवं बौना

* इनमें से सभी प्रथम विकल्पी लक्षण प्रभावी है जबकि दूसरा लक्षण अप्रभावी लक्षण हैं |

विकल्पी लक्षण (alleles) प्रभावी लक्षण  अप्रभावी लक्षण

1. बीजों का आकार गोल खुरदरा

2. बीजों का रंग  पीला हरा

3. फूलों का रंग बैंगनी सफ़ेद

4. फली का आकार चौड़ा और भरा हुआ चपटा और सिकुड़ा हुआ

5. फली का रंग हरा पीला

6. फूलों की स्थिति एक्सिअल टर्मिनल

7. तने की ऊँचाई लंबा  बौना

* मेंडल के प्रयोग में लक्षणों का अनुपात :

मेंडल के एकल संकरण द्वारा F2 संतति के उत्पन्न पौधों में जीनोटाइप एवं फेनोटाइप के आधार पर लक्षणों का अनुपात निम्न था |

फिनोंटाइप : Tt Tt Tt tt

अनुपात 3: 1 अर्थात 3 लंबा पौधा : 1 बौना पौधा

जीनोटाइप : TT Tt Tt tt

अनुपात 1: 2: 1 अर्थात आनुवंशिक रूप से 1 लंबा पौधा (TT) : 2 लंबे पौधे (Tt) : 1 बौना पौधा (tt)

1. समयुग्मकी (Homozygous) : समयुग्मकी शब्द एक विशेष प्रकार के जीन के लिए किया जाता है जो दोनों समजात गुणसूत्र में समान विकल्पी युग्मकों (identical alleles ) को वहन करता है |

(i) प्रभावी समयुग्मकी (Homozygous Dominent) : जब दोनों युग्मक प्रभावी लक्षण के हो तो इसे प्रभावी समयुग्मकी कहते हैं | उदाहरण - XX या TT

(ii) अप्रभावी समयुग्मकी (Hetroozygous Dominent) : जब दोनों युग्मक अप्रभावी लक्षण के हो तो इसे अप्रभावी समयुग्मकी कहते हैं | जैसे - xx या tt

उदाहरण : प्रभावी समयुग्मकी (XX) तथा अप्रभावी समयुग्मकी (xx) जैसे मेंडल के प्रयोग में (TT) लंबे  और (tt) बौने |

capital letter में प्रभावी लक्षण होते है और small letter में अप्रभावी लक्षण होते हैं |

2. विषमयुग्मकी (Hetrotraits) : जब किसी विकल्पी युग्मक में एक प्रभावी युग्मक का लक्षण तथा दूसरा अप्रभावी का हो तो इसे विषमयुग्मकी कहते हैं |

जैसे - Tt या Xy या xY इत्यादि |

समयुग्मकी एवं विषमयुग्मकी में अंतर :

* समयुग्मकी :

1. इसके युग्मक में या तो दोनी प्रभावी विकल्पी लक्षण होते है या दोनों अप्रभावी विकल्पी लक्षण होते हैं |

2, इसमें एक ही प्रकार के युग्मक होते हैं |

3. इसमें

* विषमयुग्मकी

1. इसके युग्मक में प्रभावी एवं अप्रभावी दोनों लक्षण होते है |

2. इसमें दोनी प्रकार के युग्मक होते हैं |

3. द्वि-संकरण अथवा द्वि-विकल्पीय संकरण (Dihybrid Cross) : दो पौधों के बीच वह संकरण जिसमें दो जोड़ी लक्षण लिए जाते है, द्वि-संकरण कहलाता है |

मेंडल का द्वि-संकरण (Dihybrid Cross) प्रयोग : मेंडल ने अपनी अगली प्रयोग में गोल बीज वाले लंबे पौधों का झुर्रीदार बीज वाले बौने पौधों से संकरण (cross pollination) कराया | F1 पीढ़ी के सभी पौधे लंबे एवं गोल बीज वाले थे | F1 पीढ़ी के संतति का स्वनिषेचन से F2 पीढ़ी के संतति जो प्राप्त हुई वे पौधे कुछ लंबे एवं गोल बीज वाले थे तथा कुछ बौने एवं झुर्रीदार बीज वाले थे |

अत: दो अलग-अलग लक्षणों की स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होती  है |

यहाँ F1 पीढ़ी के दोनों पौधों का स्व-निषेचन (Self-fertilisation) कराया गया | जिससे

F2 पीढ़ी के पौधे का जीनोटाइप (Genotypes) सूचनाएँ इस प्रकार थी जो दोनों F1 पीढ़ी के पौधों के युग्मक से प्राप्त हुई |

F2 पीढ़ी के पौधे   
  
युग्मक   RY   Ry   rY   ry
RY RRYY   RRYy   RrYY   RrYy
Ry RRYy   RRyy   RrYy   Rryy
rY RrYY   RrYy   rrYY   rrYy
ry   RrYy   Rryy   rrYy   rryy

F2 में फिनोंटाइप (Fenotypes):

(R तथा Y प्रभावी लक्षण हैं जबकि r तथा y अप्रभावी लक्षण है )

गोल, पीले बीज : 9

गोल, हरे बीज : 3

झुर्रीदार, पीले बीज : 3

झुर्रीदार, हरे बीज : 1

मैंडल द्वारा मटर के ही पौधे के चुनने का कारण :

1. इनका जीवन काल बहुत ही छोटा होता है |

2. ये बहुत ही कम समय में फल एवं बीज उत्पन्न कर देते हैं |

3. इसमें विभिन्नताएँ काफी पायी जाती है जिनका अध्ययन एवं भेद करना आसान हैं |

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* आनुवंशिकता एवं जैव विकास


* आनुवंशिकता एवं जैव विकास

स्पीशीज के अस्तित्व के लिए विभिन्नताओं का महत्त्व: किसी भी स्पीशीज में कुछ विभिन्नताएँ उन्हें अपने जनक से मिली होती है, जबकि कुछ विभिन्नताएँ उनमें विशिष्ट होती है | जो कई बार विशेष परिस्थितियों में उन्हें विशिष्ट बनाता है | प्रकृति की विविधता के आधार पर इन विभिन्नताओं से जीव की स्पीशीज को विभिन्न प्रकार का लाभ हो सकते हैं | जैसे - किसी जीवाणु की कुछ स्पीशीज में उष्णता को सहने की क्षमता है | यदि किसी कारण उसके पर्यावरण में अचानक उष्णता बढ़ जाती है तो इसकी सबसे अधिक संभावना है कि वह स्पीशीज अपने अस्तित्व को अधिक गर्मी से बचा लेगा | 

आनुवंशिकी (Genetics): लक्षणों के वंशीगत होने एवं विभिन्नताओं का अध्ययन ही आनुवंशिकी कहलाता है |

आनुवंशिकता (Heredity): विभिन्न लक्षणों का पूर्ण विश्वसनीयता के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में वंशागत होना आनुवंशिकता कहलाता है |

विभिन्नता (Variation): एक स्पीशीज के विभिन्न जीवों के शारीरिक अभिकल्प (Design) और डी.एन.ए. में अंतर विभिन्नता कहलाता है |

वंशागत लक्षण (Inherited Traits): वे लक्षण जो किसी स्पीशीज के अपने आधारभूत लक्षणों के साथ-साथ कुछ विशेष लक्षण जो उसके जनक से उसमें वंशानुक्रम हुए है | जैसे - कुछ मनुष्यों में कर्णपालि का जुड़ा हुआ होना या किसी में स्वतंत्र होना आदि |

* मेंडल का प्रयोग एवं वंशागत नियमों के प्रतिपादन में योगदान :

मेंडल ने वंशागति के कुछ मुख्य नियमों को प्रस्तुत किए | उन्हें आनुवंशिकी विज्ञान का जनक कहा जाता है | उन्होंने अपने प्रयोग के लिए मटर के पौधों को चुना | मटर एक वर्षीय पौधा है जो बहुत ही कम समय में इसका जीवन काल समाप्त हो जाता है एवं फल एवं फुल दे देता है | मटर की विभिन्न प्रजातियाँ होती है जिनके लक्षण स्थूल रूप से दिखाई देते है | जैसे- गोल या झुर्रीदार बीज वाला, लम्बे या बौने पौधे वाला, सफ़ेद या बैगनी फुल वाला पीले या हरे बीज वाला आदि |

* लक्षणों के वंशागति के नियम :

(i)  मानव में लक्षणों की वंशागति के नियम इस बात पर आधारित हैं कि माता-पिता दोनों ही समान मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ को संतति (शिशु) में स्थानांतरित करते है |

(ii) प्रत्येक लक्षण के लिए प्रत्येक संतति में दो विकल्प होते हैं |

(iii) प्रत्येक लक्षण माता-पिता के DNA से प्रभावित होते हैं |

* मेंडल का प्रयोग :

(1) एकल संकरण (Monohybrid Cross) : इस प्रयोग में मेंडल ने मटर के सिर्फ दो एकल लक्षण वाले पौधों को लिया जिसमें एक लंबे पौधें दूसरा बौने पौधें थे | प्रथम पीढ़ी (F1) में सभी पौधे पैतृक पौधों के समान लंबे थे | उन्होंने आगे अपने प्रयोग में दोनों प्रकार के पैतृक पीढ़ी के पौधों एवं F1 पीढ़ी के पौधों को स्वपरागण द्वारा उगाया | पैतृक पीढ़ी के पौधों से प्राप्त पौधे पूर्व की ही भांति सभी लंबे थे | परन्तु F1 पीढ़ी से उत्पन्न पौधें जो F1 की दूसरी पीढ़ी F2 थी सभी पौधें लंबे नहीं थे बल्कि एक चौथाई पौधे बौने थे | 

* मेंडल के प्रयोग का निष्कर्ष :

(i) दो लक्षणों में से केवल एक पैतृक जनकीय लक्षण ही दिखाई देता है, उन दोनों का मिश्रित प्रभाव दिखाई नहीं देता है |

(ii) F1 पौधों द्वारा लंबाई एवं बौनेपन दोनों लक्षणों की वंशानुगति हुई | परन्तु केवल लंबाई वाला लक्षण ही व्यक्त हो पाया |

(iii) अत: लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न होने वाले जीवों में किसी भी लक्षण की दो प्रतिकृतियों (स्वरुप) की वंशानुगति होती है |

(iv) दोनों एक समान हो सकते है अथवा भिन्न हो सकते है जो उनके जनक पर निर्भर करता है |

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Wednesday 2 November 2016

* मादा जनन तंत्र (Female Reproductive System) :

* मादा जनन तंत्र (Female Reproductive System) :
मादा जनन तंत्र में तीन प्रमुख जननांग हैं |
(1) अंडाशय (Ovary)
(2) अंडवाहिका (fallopiun tube)
(3) गर्भाशय (Uterus)
(1) अंडाशय (Ovary) : यह मादा जनन अंगों में से प्रमुख अंग है |
इसके कार्य क्षेत्र में भी वृषण की तरह दो भाग होते हैं, एक भाग जो मादा जनन-कोशिका अर्थात अंडाणु का निर्माण करता है और दूसरा अंत:स्रावी  ग्रंथि (endocrine gland) भाग जो लिंग हार्मोन एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन का स्राव करता है | अंडाणु का निर्माण अंडाशय के फोलिकल्स से होता है | एक मादा में दो अंडाशय होते है जो दोनों गर्भाशय के दोनों ओर स्थित होते हैं | दोनों अंडाशय में असंख्य फोलिकल्स होते है जिसमें अपरिपक्व (Imatured) अंडाणु होते है | वह अंडाणु जो परिपक्व हो चूका होता है समान्यत: 28 दिन में अंडाशय से निकलता है और अंडवाहिनी से होकर गर्भाशय तक पहुँचता है |
* अंडाशय का कार्य:
(i) मादा जनन-कोशिका अर्थात अंडाणु का निर्माण करता है |
(ii) मादा लिंग हार्मोन एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन का स्राव करता है |
* लिंग हार्मोन एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्ट्रोन का कार्य :
(i) मादा में लैंगिक परिवर्तन के उत्तरदायी होते हैं |
(ii) अण्डोत्सर्ग (Releasing of eggs) को नियंत्रित करते हैं |
(2) अंडवाहिका (fallopiun tube) : अंडवाहिका मादा जनन अंग का एक नलिकाकार भाग हैं जो गर्भाशय के दोनों ओर स्थित होते है | ये अंडाणुओं का वहन करता है अर्थात यह अंडाणुओं के गर्भाशय तक पहुँचने का मार्ग है | निषेचन की प्रक्रिया भी फेलोपियन ट्यूब (अंडवाहिनी) में ही होता है |
(3) गर्भाशय (Uterus) : दोनों अंडवाहिकाएँ संयुक्त होकर एक लचीली थैलेनुमा संरचना का निर्माण करती हैं जिसे गर्भाशय कहते हैं। गर्भाशय ग्रीवा द्वारा योनि में खुलता है।
* गर्भाशय का कार्य :
(i) निषेचित अंड अथवा युग्मनज गर्भाशय में स्थापित होता है |
(ii) भ्रूण का विकास गर्भाशय में ही होता है |
(iii) प्लेसेंटा का रोपण गर्भाशय में होता है |
अपरा या प्लेसेंटा (placenta) : भ्रूण को माँ के रुधिर से ही पोषण मिलता है, इसके लिए एक विशेष संरचना होती है जिसे प्लैसेंटा कहते हैं।
यह एक तश्तरीनुमा संरचना है जो गर्भाशय की भित्ति में धँसी होती है। इसमें भ्रूण की ओर के ऊतक में प्रवर्ध होते हैं। माँ के ऊतकों में रक्तस्थान होते हैं जो प्रवर्ध को आच्छादित करते हैं। यह माँ से भ्रूण को ग्लूकोज, ऑक्सीजन एवं अन्य पदार्थों के स्थानांतरण हेतु एक बृहद क्षेत्र प्रदान करते हैं। विकासशील भ्रूण द्वारा अपशिष्ट पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनका निपटान उन्हें प्लैसेंटा के माध्यम से माँ के रुधिर में स्थानांतरण द्वारा होता है।
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* किशोरावस्था में परिवर्तनों का कारण :

* किशोरावस्था में परिवर्तनों का कारण :
किशोरावस्था में इन परिवर्तनों का समान्य कारण लिंग हार्मोन के कारण होते है | वे हार्मोन जो शरीर में लैंगिक परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी होते हैं लिंग हार्मोन कहा जाता है |
* लिंग हार्मोन दो प्रकार के होते हैं :
1. नर लिंग हार्मोन : वे हार्मोन जो नर में लैंगिक परिवर्तन के उत्तरदायी होते हैं, नर लिंग हार्मोन कहते हैं | जैसे - नर में टेस्टोस्टेरॉन |
2. मादा लिंग हार्मोन : वे हार्मोन जो मादा में लैंगिक परिवर्तन के उत्तरदायी होते हैं, मादा लिंग हार्मोन कहते है | उदाहरण - मादा में एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रोन |
* नर जनन तंत्र (Male Reproductive System) :
जनन कोशिका उत्पादित करने वाले अंग एवं जनन कोशिकाओं को निषेचन के स्थान तक पहुँचाने वाले अंग, संयुक्त रूप से, नर जनन तंत्र बनाते हैं।
नर जनन तंत्र बनाने वाले अंग जो जनन क्रिया में भाग लेते है नर जननांग कहलाते हैं |
1. वृषण (Testes) : नर जननांगों में वृषण प्रमुख अंग है जो नर जनन कोशिका अर्थात शुक्राणु का निर्माण करता है | यह उदर गुहा के बाहर वृषण कोष (Scrotum) में स्थित होता है | इसके दो भाग होते है | एक वह भाग जो शुक्राणु का निर्माण करता है और दूसरा भाग जिसे अंत:स्रावी  ग्रंथि (endocrine gland) भी कहते है ये टेस्टोस्टेरॉन नामक हार्मोन का स्राव करता है | टेस्टोस्टेरॉन जो नर में लैंगिक परिवर्तनों के उत्तरदायी है और इसे नियंत्रण भी करता है |
* वृषण का कार्य :
(i) नर जनन कोशिका अर्थात शुक्राणु का निर्माण करता है |
(ii) ये टेस्टोस्टेरॉन नामक हार्मोन का स्राव करता है |
* वृषण कोष (Scrotum) का कार्य : इसी कोश में वृषण स्थित होता है |
(i) यह वृषण के शुक्राणु (sperm) निर्माण के लिए आवश्यक ताप को नियंत्रण करता है | चूँकि शुक्राणु निर्माण के लिए शरीर के ताप से भी कम ताप की आवश्यकता होती है |
(ii) यह वृषण को स्थित रहने के लिए स्थान प्रदान करता हैं |
शुक्रवाहिनी (Vas Difference) : वृषण में शुक्राणु निर्माण के बाद इसी शुक्रवाहिनी से होकर शुक्राशय तक पहुँचता है | आगे ये शुक्रवाहिकाएँ मूत्राशय से आने वाली नली से जुड़ कर एक संयुक्त नली बनाती है। अतः मूत्रामार्ग (urethra) शुक्राणुओं एवं मूत्र दोनों के प्रवाह के उभय मार्ग है।
* शुक्राशय (Seminal Vesicles) :
शुक्राशय एक थैली जैसी संरचना है जो शुक्राणुओं का संग्रह करता है | ये अपने यहाँ संग्रहित शुक्राणुओं को शुक्रवाहिका में डालते हैं |
प्रोस्ट्रेट ग्रंथि या पौरुष ग्रंथि : यह एक बाह्य स्रावी ग्रंथि है जो एक तरल पदार्थ का निर्माण करता है जिसे वीर्य (semen) कहते है | यह शुक्राणुओं की गति के लिए एक तरल माध्यम प्रदान करता हैं | इसके कारण शुक्राणुओं का स्थानांतरण सरलता से होता है | और ये शुक्राणुओं का पोषण भी प्रदान करता है |
शुक्राणु (Sperms) : शुक्राणु सूक्ष्म सरंचनाएँ हैं जिसमें मुख्यतः आनुवंशिक पदार्थ होते हैं तथा एक लंबी पूँछ होती है जो उन्हें मादा जनन-कोशिका की ओर तैरने में सहायता करती है।
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* मानव में लैंगिक जनन :

* मानव में लैंगिक जनन :
मनुष्य में लैंगिक जनन के लिए लैंगिक जनन के लिए उत्तरदायी कोशिकाओं का विकास बहुत ही आवश्यक है | इन कोशिकाओं को जनन कोशिकाएँ कहते है |

 इन कोशिकाओं का विकास मनुष्य के जीवन काल के एक विशेष अवधि में होता है, जिसमें शरीर के विभिन्न भागों में विशेष परिवर्तन होते हैं |

 विशेषतया जनन कोशिकाओं में परिवर्तन होते है | जैसे-जैसे शरीर में समान्य वृद्धि दर धीमी होती है जनन-उत्तक परिपक्व (Mature) होना आरंभ करते हैं |
* किशोरावस्था (Adolescence) :
वृद्धि एक प्राकृतिक प्रक्रम है। जीवन काल की वह अवधि जब शरीर में ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसके परिणामस्वरूप जनन परिपक्वता आती है, किशोरावस्था कहलाती है।


यौवनारंभ (Puberty) : किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें लैंगिक विकास सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होती है उसे यौवनारंभ कहते हैं | यौवनारंभ का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन लड़के एवं लड़कियों की जनन क्षमता का विकास होता है |

दुसरे शब्दों में, किशोरावस्था की वह अवधि जिसमें जनन  उतक परिपक्व होना प्रारंभ करते है । यौवनारंभ कहा जाता है ।
यौवनारंभ की शुरुआत : लड़कों तथा लडकियों में यौवनारंभ निम्न शारिरिक परिवर्तनों के साथ आरंभ होता है ।
लडकों में परिवर्तन - दाढ़ी मूँछ का आना , आवाज में भारीपन, काँख एवं जननांग क्षेत्र में बालों का आना , त्वचा तैलिय हो जाना, आदि ।


लडकियों में परिवर्तन - स्तन के आकार में वृद्धि होना, आवाज में भारीपन, काँख एवं जननांग क्षेत्र में बालों का आना , त्वचा तैलिय हो जाना, और रजोधर्म का होने लगना , जंघा की हडियो का चौडा होना, इत्यादि।
लडकियों में यौवनारंभ 12 - 14 वर्ष में होता है जबकि लडको में यह 13 - 15 वर्ष में आरंभ होता है ।


* द्वितीयक या गौण लैंगिक लक्षण (Secondry Sexual Characters): 
गौंड लैंगिक लक्षण वे लक्षण है जो यौवनारंभ के दौरान वृषण एवं अंडाशय शुक्राणु एवं अंडाणु उत्पन्न करते है तथा लडकियों में स्तनों का विकास होने लगता है तथा लडकों के चेहरे पर बाल उगने लगते हैं अर्थात् दाढ़ी-मूॅछ आने लगती है। ये लक्षण क्योंकि लड़कियों को लड़कों से पहचानने में सहायता करते हैं अतः इन्हें गौण लैंगिक लक्षण कहते हैं।
* शारीरिक परिवर्तनों की सूची :
(i) लंबाई में वृद्धि ।
(ii) शारीरिक आकृति में परिवर्तन ।
(iii) स्वर में परिवर्तन ।
(iv) स्वेद एवं तैलग्रेथियों की क्रियाशीलता में वृद्धि ।
(v) जनन अंगो का विकास ।
(vi) मानसिक, बौद्धिक एवं संवेदनात्मक परिपवक्ता ।
(vii) गौंड लैंगिक लक्षण   
* रजोदर्शन : यौवनारंभ के समय रजोधर्म के प्रारंभ को रजोदर्शन कहते है।
यह 12 से 14 वर्ष की आयु की युवतियो में प्रारंभ होता हैं ।
रजोनिवृति (Menopause) : जब स्त्रियो के रजोधर्म 50 वर्ष की आयु में ऋतुस्राव तथा अन्य धटना चक्रो की समाप्ती रजोनिवृति कहलाती है।


आवर्त चक्र (Menstrual Cycle) : प्रत्येक 28 दिन बाद अंडाशय तथा गर्भाशय में होनें वाली घटना ऋतुस्राव द्धारा चिन्हित होती है तथा आर्वत चक्र या स्त्रियों का लैगिक चक्र कहलाती है।
लैंगिक परिवर्तन (Sexual changes) : किशोरावस्था में होने वाले ये सभी परिवर्तन एक स्वत: होने वाली प्रक्रिया है जिसका उदेश्य लैंगिक परिपक्वता (Maturity) है | लैंगिक परिपक्वता 18 से 19 वर्ष की आयु में लगभग पूर्ण हो जाती है, जिसका आरंभ यौवनारंभ से शुरू होता है |


संवेदनाओं में परिवर्तन : इस अवधि में होने वाले परिवर्तनों में महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से है मानसिक, बौद्धिक एवं संवेदनाओं में परिवर्तन |
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* जनन की प्रक्रिया (The Process of Reproduction) :

* जनन की प्रक्रिया (The Process of Reproduction) :
परागकणों का वर्तिकाग्र पर स्थानांतरण
परागण
परागित परागकण का वर्तिका से होते हुए बीजांड तक पहुँचाना
निषेचन
युग्मनज का निर्माण
भ्रूण का विकसित होना
बीज का निर्माण
अंकुरण
* नए पौधा का जन्म 
परागण (Pollination) : परागकणों का परागकोश से वर्तिकाग्र तक स्थानान्तरण होने की प्रक्रिया को परागण कहते है।
* परागण दो प्रकार के होते है।          
1. स्वपरागण (Self Pollination)
2. परापरागण (Cross Pollination)
1. स्वपरागण (Self Pollination) :
जब एक पुष्प के परागकोश से उसी पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणो का स्थानान्तरण स्व - परागण कहलाता है।
2. परापरागण (Cross Pollination) :
जब एक पुष्प के पराकोष से उसी जाति के अन्य दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणो का स्थानान्तरण होता है तो परा - परागण कहलाता है |
* परापरागण के कारक :
एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक परागकणों का यह स्थानांतरण वायु, जल अथवा प्राणी जैसे वाहक द्वारा संपन्न होता है।
1. भौतिक कारक : वायु तथा जल
2. जन्तु कारक : कीट तथा कीड़े-मकौड़े जैसे - तितली, मधु-मक्खी इत्यादि |
* अंकुरण (Germination) :
बीज में भावी पौधा अथवा भ्रूण होता है जो उपयुक्त परिस्थितियों में नए संतति में विकसित हो जाता है। इस प्रक्रम को अंकुरण कहते हैं। 
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* पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants) :

* पौधों में लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Plants) :
पुष्पी पादपों में जननांग : ( function() { if (window.CHITIKA === undefined) { window.CHITIKA = { 'units' : [] }; }; var unit = {"calltype":"async[2]","publisher":"nikhil944","width":550,"height":250,"sid":"Chitika Default"}; var placement_id = window.CHITIKA.units.length; window.CHITIKA.units.push(unit); document.write('
'); }()); >
मादा जननांग : स्त्रीकेसर
स्त्रीकेसर के भाग : वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय |
नर जननांग : पुंकेसर |
पुंकेसर के भाग : परागकोष तथा तंतु |
* पुष्प दो प्रकार के होते हैं :
(i) एकलिंगी पुष्प (unisexual flower) :जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्त्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है तो ऐसे पुष्प एकलिंगी कहलाते हैं | उदाहरण: पपीता, तरबूज इत्यादि।
(ii) द्विलिंगी या उभयलिंगी पुष्प (Bisexual flower):  जब एक ही पुष्प में पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, तो उन्हें उभयलिंगी पुष्प कहते हैं। उदाहरण:  गुड़हल, सरसों इत्यादि |
पुंकेसर : पुंकेसर नर जननांग है जो तंतु तथा परागकोश से मिलकर बना है | यह परागकणों को बनाता है |
* पुंकेसर का कार्य:
(i) यह नर जननांग है जो परागकण बनाता है।
परागकोश () : परागकोश परागकणों को संचय करता है |         
परागकण (Pollen grains) : परागकण पौधों में नर युग्मक है जो सामान्यत: पीले रंग का पाउडर जैसा चिकना पदार्थ होता है |
स्त्रीकेसर : यह मादा जननांग है जो वर्तिकाग्र, वर्तिका और अंडाशय से मिलकर बना है | यह पुष्प के केंद्र में अवस्थित होता है |
वर्तिकाग्र : यह पुष्प का वह मादा भाग है जिस पर परागण की क्रिया होती है | यह चिपचिपा होता है |
वर्तिका : यह एक नलिकाकार भाग है जो वर्तिकाग्र और अंडाशय को जोड़ता है |
अंडाशय : पुष्प के केंद्र में स्थित होता है इसमें बीजांड होता है और प्रत्येक बीजांड में एक अंड-कोशिका होता है, जहाँ निषेचन के पश्चात् भ्रूण बनता है |
* स्त्रीकेसर का कार्य :
स्त्राीकेसर मादा जननांग है जो वर्तिकाग्र , वर्तिका और अंडाशय से मिलकर बना है।
कार्य:
(i) वर्तिकाग - यहाँ परागण की क्रिया होती है।
(ii) वर्तिका - वर्तिका को परागनली भी कहा जाता हैं । यह नर युग्मक को अंडाशय तक पहुँचाता है।
(iii) अंडाशय - अंडाशय पुष्प का एक प्रमुख मादा जननांग है जहाँ संलयन (निषेचन) की क्रिया होती है और भुण्र का निर्माण होता है।
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