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Saturday 5 November 2016

* प्रकाश का परावर्तन :

* प्रकाश का परावर्तन :
जब प्रकाश की किरण किसी चमकीले सतह से या परावर्तक पृष्ठ से टकराता है तो यह उसी माध्यम में पुन: मुड़ जाता है जिस माध्यम से यह आता है | इस परिघटना को प्रकाश का परावर्तन कहते है |
प्रकाश का परावर्तन हमेशा अपारदर्शी वस्तुओं से ही होता है | जबकि प्रकाश का अपवर्तन पारदर्शी वस्तुओं से होता है |
* प्रकाश के परावर्तन का नियम :
(i)  आपतन कोण, परावर्तन कोण  के समान होता है |
∠ i =   ∠ r 
(ii)  आपतित किरण, दर्पण के आपतन बिंदु पर अभिलम्ब और परावर्तित किरण, सभी एक ही तल में होते हैं |
नोट : परावर्तन का यह नियम गोलीय दर्पण सहित सभी परावर्तक पृष्ठों पर लागु होता है |
* कुछ समान्य एवं अदभुत परिघटनाएं:
प्रकाश के परावर्तन के कारण कुछ समान्य एवं अदभुत परिघटनाएं होती है जो निम्न है :
दर्पण के द्वारा प्रतिबिम्ब का बनना, तारों का टिमटिमाना, इन्द्रधनुष के सुन्दर रंग, किसी माध्यम द्वारा प्रकाश का मोड़ना आदि |
* परावर्तन के प्रकार:
(i) नियमित परावर्तन (specular or regular reflection): इस प्रकार का परावर्तन चिकने सतह से होता है तथा अपतित किरणें परावर्तन के पश्चात् समांतर ही रहती है |
                               
(ii) अनियमित परावर्तन (Diffused or irregular reflection): इस तरह का परावर्तन
खुरदरे सतह से होता है तथा परावर्तन के पश्चात् आपतित समान्तर किरणे समान्तर नहीं होती है |
                            
(i) specular or regular reflection
(ii) Diffused or irregular reflection
दर्पण : यह एक चमकीला और अधिक पॉलिश किया हुआ परावर्तक पृष्ठ होता है जो अपने
सामने रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब बनाता है |
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* दर्पण दो प्रकार का होता है |
(A) समतल दर्पण (Plane mirror) : इसका परावर्तक पृष्ठ सीधा तथा सपाट होता है |
परिभाषा : ऐसे दर्पण जिनका परावर्तक पृष्ठ समतल हो समतल दर्पण कहलाता है |
                       
(B)  गोलीय दर्पण (Spherical mirror) : इसका परावर्तक पृष्ठ वक्र (मुड़ा हुआ) होता है |
गोलीय दर्पण का परावर्तक पृष्ठ अन्दर की ओर या बाहर की ओर वक्रित हो सकता है |
परिभाषा : ऐसे दर्पण जिसका परावर्तक पृष्ठ गोलीय होता है, गोलीय दर्पण कहलाता है |
इसी वक्रता के आधार पर गोलीय दर्पण दो प्रकार का होता है |
* गोलीय दर्पण के प्रकार :
(i) अवतल दर्पण (Concave mirror) : इसका परावर्तक पृष्ठ अन्दर की ओर अर्थात गोले के केंद्र की ओर धसा हुआ (वक्रित)  होता है |
                   
(ii) उत्तल दर्पण (convex mirror) : इसका परावर्तक पृष्ठ बाहर की तरफ उभरा हुआ (वक्रित) होता है |
                
* गोलीय दर्पण के भाग:
(i) ध्रुव (Pole): गोलीय दर्पण के परावर्तक पृष्ठ के केंद्र को दर्पण का ध्रुव कहते है | इसे P से इंगित किया जाता है |
(ii)  वक्रता केंद्र (Center of Curvature): गोलीय दर्पण का परावर्तक पृष्ठ एक गोले का भाग होता है | इस गोले का केंद्र को गोलीय दर्पण का वक्रता केंद्र कहते है |  इसे अंग्रेजी के बड़े अक्षर C से इंगित किया जाता है |
(iii) वक्रता त्रिज्या (The radius of Curvature): गोलीय दर्पण के ध्रुव एवं वक्रता केंद्र के बीच की दुरी को वक्रता त्रिज्या कहते है |
(iv) मुख्य अक्ष (Principal axis): गोलीय दर्पण के ध्रुव एवं वक्रता केंद्र से होकर गुजरने वाली एक सीधी रेखा को दर्पण का मुख्य अक्ष कहते है |
(v) मुख्य फोकस (Principal Focus): दर्पण के ध्रुव एवं वक्रता केंद्र के बीच एक अन्य बिंदु F होता है जिसे मुख्य फोकस कहते है | मुख्य अक्ष के समांतर आपतित किरणें
परावर्तन के बाद अवतल दर्पण में इसी मुख्य फोकस पर प्रतिच्छेद करती है तथा उत्तल दर्पण में प्रतिच्छेद करती प्रतीत होती है |
(vi) फोकस दुरी (Focal Length): दर्पण के ध्रुव एवं मुख्य फोकस के बीच की दुरी को फोकस दुरी कहते है, इसे अंग्रेजी के छोटे अक्षर (f ) से इंगित किया जाता है | यह दुरी वक्रता त्रिज्या की आधी होती है |
(vii) द्वारक (Aperatute): गोलीय दर्पण का परावर्तक पृष्ठ अधिकांशत: गोलीय ही होता है | इस पृष्ठ की एक वृत्ताकार सीमा रेखा होती है | गोलीय दर्पण के परावर्तक पृष्ठ की इस सीमा रेखा का व्यास, दर्पण का द्वारक कहलाता है |
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* परावर्तन का नियम

* परावर्तन का नियम
हम किसी वस्तु को कैसे देख पाते है ?
वस्तु पर पड़ने वाले प्रकाश को वस्तु परावर्तित कर देती है, यह परावर्तित किरण जब हमारी आँखों के द्वारा ग्रहण किया जाता है तो यह परावर्तन वस्तु को आँखों के द्वारा देखने योग्य बनाता है |
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प्रकाश की किरण : जब प्रकाश अपने प्रकाश के स्रोत से गमन करता है तो यह सीधी एवं एक सरल रेखा होता है | प्रकाश के स्रोत से चलने वाले इस रेखा को प्रकाश की किरण कहते है |
छाया: जब प्रकाश किसी अपारदर्शी वस्तु से होकर गुजरता है तो यह प्रकाश की किरण को परावर्तित कर देता है जिससे उस अपारदर्शी वस्तु की छाया बनती है |
प्रकाश का विवर्तन : यदि प्रकाश के रास्ते में राखी अपारदर्शी वस्तु अत्यंत सूक्ष्म हो तो प्रकाश सरल रेखा में चलने की अपेक्षा इसके किनारों पर मुड़ने की प्रवृति दिखता है - इस प्रभाव को प्रकाश का विवर्तन कहते है |
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Thursday 3 November 2016

* जीवाश्मों की आयु का आंकलन :

* जीवाश्मों की आयु का आंकलन : 
(i) खुदाई द्वारा /सापेक्ष पद्धति द्वारा : खुदाई करने पर पृथ्वी की सतह के निकट वाले जीवाश्म गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्मों की तुलना में अधिक नए होते है जबकि गहरे स्तर पर पाए गए जीवाश्म पुराने होते है |
(ii) फॉसिल डेटिंग (Fossil Dating) द्वारा : जिसमें जीवाश्म में पाए जाने वाले किसी एक तत्व के विभिन्न समस्थानिको का अनुपात के आधार पर जीवाश्म का समय-निर्धारित किया जाता है | इसमें कार्बन-14 समस्थानिक जो सजीवों में उपस्थित होता है, का उपयोग किया जाता है जिसमें सजीव के जीवाश्म में उपस्थित कार्बन-14 रेडियोएक्टिवता होती है जो समय के साथ धीरे-धीरे घटता जाता है | इसी रेडियोएक्टिवता की तुलना करके जीवाश्मों की आयु का पता लगाया जाता है | 
* डार्विन का विकास सिद्धांत :
प्रजनन की असीम क्षमता धारण करते हुए भी किसी भी जीवधारी की जनसंख्या एक सीमा के अंदर ही नियंत्रित रहती है। यह आपसी संर्धष के कारण है जो एक जाति के सदस्यो के बीच अथवा विभिन्न जातियो के सदस्यो के बीच भोजन, स्थान एवं जोडी के लिए होता रहता है। इस संर्धष से व्यष्टियां लोप हो जाती हैं। और एक नई जाति का उदभव होता है। इसे ही डार्विन के विकास का सिद्धांत कहते हैं | डार्विन द्वारा प्रस्तावित विकास के सिद्धांत को 'प्राकृतिक वरण का सिद्धांत' भी कहा जाता है | इन्होने इस सिद्धांत को अपनी पुस्तक "The Origin of Species" में वर्णन किया है |
* इस सिद्धांत के अनुसार :
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(i) किसी भी समष्टि के अंदर प्राकृतिक रूप से विविधता (variation) होता है जबकि उसी समष्टि के कुछ व्यष्टियों में अन्य के अपेक्षा अधिक अनुकूलित विविधता होती है |
(ii) प्रजनन की असीम क्षमता धारण करते हुए भी किसी भी जीवधारी की जनसंख्या एक सीमा के अंदर ही नियंत्रित रहती है।
(iii) यह आपसी संर्धष के कारण है जो एक जाति के सदस्यो के बीच अथवा विभिन्न जातियो के सदस्यो के बीच भोजन, स्थान एवं जोडी के लिए होता रहता है। इस संर्धष से व्यष्टियां लोप हो जाती हैं।
(iv) जो व्यष्टियाँ अनुकूलित होती है और जिनमें विविधता होती है वे ही अपनी उत्तरजीविता को बनाए रखती हैं, और वे इन अनुकूलित विविधता को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ियों में हस्तांतरित करते हैं |
(v) जब ये विविधताएँ लंबे समय तक संचित होती रहती है तो जीव अपने मूल समष्टि से भिन्न दिखाईदेने लगता है और एक नयी जाति (species) की उत्पति होती है |
* भ्रौणिकी (भ्रुण सम्बंधी) के अघ्ययन से विकास का प्रमाण :
कशेरूकी जंतुओं के भ्रुणों के अध्ययन से पता चलता है कि इनका विकास मछली जैसे पूर्वजों से हुआ है । मछली , पक्षी तथा मनुष्य की भ्रुणों की पहली अवस्था लगभग समान होती है जिसके गहन अध्ययन से पता चलता है कि सभी में गिल दरारें तथा नोटोकार्ड  होते है ।  
पृथ्वी पर जीवों की उत्पति : एक ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन (जो बाद में भारत के नागरिक हो गए थे।) ने 1929 में यह सुझाव दिया कि जीवों की सर्वप्रथम उत्पत्ति उन सरल अकार्बनिक अणुओं से ही हुई होगी जो पृथ्वी की उत्पत्ति के समय बने थे। उसने कल्पना की कि पृथ्वी पर उस समय का वातावरण, पृथ्वी के वर्तमान वातावरण से सर्वथा भिन्न था। इस प्राथमिक वातावरण में संभवतः कुछ जटिल कार्बनिक अणुओं का संश्लेषण हुआ जो जीवन के लिए आवश्यक थे। सर्वप्रथम प्राथमिक जीव अन्य रासायनिक संश्लेषण द्वारा उत्पन्न हुए होंगे।
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* जटिल अंगों का विकास एवं उनमें भिन्नता का कारण :
(i) इसका प्रमुख कारण अलग-अलग विकासीय उत्पत्ति है |
(ii) इनके डीएनए में परिवर्तन जो उनकी क्रमिक विकास के रूप में दिखाई देता है वह वास्तव में अनेक पीढ़ियों के हुआ है |
(iii) आँख या अन्य कोई अंग का चयन उसकी उपयोगिता के आधार पर होता है |
(iv) प्राकृतिक चयन भी इसका प्रमुख कारण है |
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* विकास एवं वर्गीकरण

* विकास एवं वर्गीकरण
अभिलक्षण (Characteristics) : बाह्य आकृति अथवा व्यवहार का विवरण अभिलक्षण कहलाता है।
दूसरे शब्दों में, विशेष स्वरूप अथवा विशेष प्रकार्य अभिलक्षण कहलाता है। हमारे चार पाद होते हैं, यह एक अभिलक्षण है। पौधें में प्रकाशसंश्लेषण होता है, यह भी एक अभिलक्षण है।
• सभी  जीवों में कोशिका जो आधारभूत इकाई है यह भी एक अभिलक्षण है |
• सभी जीवों का वर्गीकरण उनके अभिलक्षणों के आधार किया है जिसमें पहला वर्गीकरण उनके कोशिकीय अभिलक्षण है जैसे केंद्रक झिल्ली वाले जीव (यूकैरियोटिक) और बिना केन्द्रक झिल्ली वाले जीव (प्रोकैरियोटिक)| 
• दो स्पीशीश के मध्य जितने अध्कि अभिलक्षण समान होंगे उनका संबंध् भी उतना ही निकट का होगा। जितनी अधिक समानताएँ उनमें होंगी उनका उद्भव भी निकट अतीत में समान पूर्वजों से हुआ होगा।
• जिन जीवों में अभिलक्षण समान होगा तो वे जीव समान जनक से वंशानुगत हुए है |
* विकास (Evolution) : जीवों में होने वाले अनुक्रमिक परिवर्तनों के परिणाम को विकास कहते हैं जो लाखों वर्षों से भी ऊपर आदिम जीवों में घटित होते हैं जिनसे नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं |
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चूँकि विकास जीवित जीवों का होता है इसलिए इसे जैव विकास भी कहते है |
(i) समजात अंग (Homologous Organs): विभिन्न जीवों में वे अंग जो आकृति तथा उत्पति में समानता रखते हैं समजात अंग कहलाते हैं ।
उदाहरण - मेंढक के अग्रपाद , पक्षी के अंग , चमगादड. के पंख  घोड़ा के अग्रपाद आदि उत्पत्ति में समान होते हेैं परंतु वे कार्य में परस्पर भिन्नता रखते हैं ।
(ii) समरूप अंग (Analogous Oragans): विभिन्न जीवों के वे अंग जो कार्य में समान होते हैं परंतु उत्पत्ति में भिन्न होते हैं समरूप अंग कहलाते हैं ।
उदाहरण:- तितली . के पंख, पक्षी के पंख आदि कार्याें में समान होते हैं परंतु उत्पत्ति में वे भिन्न हैं ।
(iii) जीवाश्म (Fossil) : मृत जीवों के परिरक्षित अवशेष को जीवाश्म कहते हैं |
उदाहरण कोई मृत कीट गर्म मिट्टी में सुख कर कठोर हो जाये |
जीवाश्म प्राचीन समय में मृत जीवों के संपूर्ण, अपूर्ण, अंग आदि के अवशेष तथा उन अंगो के ठोस, मिट्टी, शैल तथा चट्टानों पर बने चिन्ह होते हैं जिन्हें पृथ्वी को खोदने से प्राप्त किया गया हो । ये चिन्ह इस बात का प्रतीक हैं कि ये जीव करोंडों वर्ष पूर्व जीवित थे लेकिन वर्तमान काल में लुप्त हो चुके हैं ।
* अब तक प्राप्त कुछ जीवाश्म के उदाहरण :
अमोनाइट - अकशेरुकी जीवाश्म
ट्राइलोबाइट - अकशेरुकी जीवाश्म
नाइटिया - मछली का जीवाश्म
राजासौरस - जीवाश्म - डायनासोर 
* जीवाश्मों के अध्ययन से निम्न बातों का पता चलता है |
1. जीवाश्म उन जीवों के पृथ्वी पर अस्तित्व की पुष्टि करते हैं ।
2. इन जीवाश्मो की तुलना वर्तमान काल में उपस्थित समतुल्य जीवों से कर सकते हैं । इनकी तुलना से अनुमान लगाया जा सकता हैं कि वर्तमान में उन जीवाश्मों के जीवित स्थिति के काल के संबंध में क्या विशेष परिवर्तन हुए हैं जो जीवधारियों कीे जीवित रहने के प्रतिकूल हो गए हैं ।
* विकासीय संबंध की पहचान/प्रमाण :
(i) समजात अंग विकास के पक्ष में प्रमाण उलब्ध कराते हैं | यह अंग यह बताता है कि इनके पूर्वज एक ही थे, अर्थात ये समान पैतृक पूर्वज से उत्पन्न हुए है |
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चूँकि इनका बनावट एक है परन्तु इनका कार्य भिन्न है लेकिन इनके अंगो में परिवर्तन विकास को दर्शाता है |  
(ii) समरूप अंग विकास के पक्ष में प्रमाण उलब्ध कराते हैं | यह अंग यह सूचित करता है कि भिन्न संरचनाओं के अंगों वाले जीव भी प्रतिकूल परिस्थितयों में अपने को बनाए रखने के लिए और एक समान कार्य करने के लिए अपने को अनुकूलित कर लेते है | इससे यह कहा जा सकता है कि विकास हुआ है |
(iii) जीवाश्म भी विकास के संबंध में प्रमाण उपलब्ध कराते हैं | उदाहरण : आर्कियोप्टेरिक्स के जीवाश्म के अध्ययन से पता चलता है कि यह दिखता तो पक्षी की तरह है परन्तु कई ऐसे दुसरे लक्षण सरीसृप (reptile) के जैसे है | इसके यह पता चलता है की पक्षियों का विकास सरीसृपों से हुआ है |
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* जाति उदभव का कारण:

* जाति उदभव का कारण:
(i) अनुवांशिक विचलन (Genetic Drift) : किसी एक समष्टि की उत्तरोतर पीढ़ियों में सापेक्ष जींस की बारंबारता में अचानक परिवर्तन का उत्पन्न होना अनुवांशिक विचलन कहलाता है |
(ii) भौगोलिक पृथक्करण (Geographical Isolation) : किसी जनसंख्या के बीच जींस प्रवाह को भौगोलिक आकृतियाँ जैसे पर्वत, नदियाँ समुद्र इत्यादि रोकती है | जिससें एक ही समष्टि के जीव पृथक हो जाते है | इसके कारण इनका प्राकृतिक वरण भी विलग हो जाता है | इसे ही भौगोलिक पृथक्करण कहते है |
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लैंगिक जनन करने वाले जीवों में जाति-उदभव का प्रमुख कारक है क्योंकि याग युग्मकों द्वारा पृथक जनसँख्या के बीच जीनों के बहाव को कम करता है या बाधा डालता है | परन्तु स्व-परागण वाले पादप जातियों के बीच जाति-उदभव का कारक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रजनन प्रक्रिया को पूरा करने के लिए दुसरे पादप पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है |
(iii) प्राकृतिक वरण (Natural Selection) : चयन की वह प्रक्रिया जिसमे जीव अपने पर्यावरण के प्रति बेहतर अनुकूलित होते है और अपने उत्तरजीविता कोबनाए रखते हुए अधिक संताने उत्पन्न करते है | प्राकृतिक वरण के द्वारा व्यष्टियों में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है | यदि विभिन्नताएँ जीवों के अपनी मूल व्यष्टि से कहीं अधिक हो गयी तो जीव जींस में भी काफी परिवर्तन (जेनेटिक ड्रिफ्ट) आएगा तथा जीव भिन्न होगा और एक नयी जाति-का उदभव होता है | यह भी हो सकता है कि नया जीव अपने पूर्व के जीवों के साथ अंतर्जनन में असमर्थ हो | 
यदि डी.एन.ए. में यह परिवर्तन पर्याप्त है जैसे गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन, तो दो समष्टियों के सदस्यों की जनन कोशिकाएँ (युग्मकों) संलयन करने में असमर्थ हो सकती हैं।
* अनुवांशिक विचलन का कारण :
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(i) डीएनए में परिवर्तन
(ii) गुणसूत्रों में परिवर्तन
स्थानीय समष्टि में विभिन्नता का कारण : जब कोई उपसमष्टि भौगोलिक पृथक्करण के कारण अप्रवास करता है तो वह अन्य स्थान को अपना आवास बनाता है और वहाँ के किसी उपसमष्टि के साथ जनन करता है जिससे जीन का प्रवाह होता है और इससे उत्पन्न नए जीव में विभिन्नता आती है | 
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* लिंग निर्धारण

* लिंग निर्धारण
लैंगिक जनन में अलग-अलग स्पीशीज लिंग निर्धारण के लिए अलग-अलग युक्ति अपनाते है |
• कुछ पूर्ण रूप से पर्यावरण पर निर्भर करते हैं |
• कुछ प्राणियों में लिंग निर्धारण निषेचित अंडे (युग्मक) के ऊष्मायन ताप पर निर्भर करता है कि संतति  नर होगी या मादा |
• घोंघे जैसे प्राणी अपना लिंग बदल सकते है, अत: इनमें लिंग निर्धारण अनुवांशिक नहीं है |
* मानव में लिंग निर्धारण :
मनुष्य में लिंग निर्धारण आनुवंशिक आधार पर होता है अर्थात जनक जीवों से वंशानुगत जीन ही इस बात का निर्णय करते है कि संतति लड़का होगा अथवा लड़की |
लिंग गुणसूत्र: वह गुणसूत्र जो मनुष्य में लिंग का निर्धारण करते है लिंग गुणसूत्र कहते है, मनुष्य में इनकी संख्या 1 जोड़ी होती है |
मनुष्य में 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं जिनमें से 22 जोड़ी गुणसूत्र माता-पिता के गुणसूत्रों के प्रतिरूप होते हैं और एक जोड़ी गुणसूत्र जिसे लिंग गुणसूत्र कहते हैं, जो मनुष्य  में लिंग का निर्धारण करते हैं | स्त्रियों में ये पूर्ण युग्म होते हैं अर्थात एक जैसा जोड़ी होते हैं जो "XX" कहलाते हैं | जबकि नर में एक समान युग्म नहीं होता, इसमें एक समान्य आकार का "X" होता है एवं दूसरा गुणसूत्र छोटा होता है जिसे "Y" गुणसूत्र कहते हैं |
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मानव में लिंग निर्धारण प्रक्रिया : मादा जनक में एक जोड़ी "XX" गुणसूत्र होते है एवं नर जनक में "XY" गुणसूत्र होते है | अत: सभी बच्चे चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की अपनी माता से "X" गुणसूत्र प्राप्त करते हैं | अत: लड़का होगा या लड़की इसमें माता की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि वे माता से समान गुणसूत्र प्राप्त करते हैं | लिंग का निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि संतान को अपने पिता से कौन-सा गुणसूत्र युग्मक के रूप में प्राप्त होता है | यदि पिता से "X" गुणसूत्र युग्मक के रूप में वंशानुगत हुआ है तो वह लड़की होगी एवं जिसे पिता से "Y" गुणसूत्र युग्मक के रूप में प्राप्त हुआ है वह लड़का होगा |
          
Q - जनन कोशिकाओं का निर्माण कहाँ होता है ?
A - विशिष्ट जनन उत्तक वाले जननांगों में |
(1) उपार्जित लक्षण (Aquired Traits): वे लक्षण जिसे कोई जीव अपने जीवन काल में अर्जित करता है उपार्जित लक्षण कहलाता है | उदाहरण : अल्प पोषित भृंग के भार में कमी |
* उपार्जित लक्षणों का गुण :
(a) ये लक्षण जीवों द्वारा अपने जीवन काल में प्राप्त किये जाते है |
(b) ये जनन कोशिकाओं के डीएनए (DNA) में कोई बदलाव नहीं लाते और अगली पीढ़ी को वंशानुगत /स्थानांतरित नहीं होते |
(c) ये लक्षण जैव विकास में सहायक नहीं हैं |
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(2) आनुवंशिक लक्षण (Heridatory Traits): वे लक्षण जिसे कोई जीव अपने जनक (parent) से प्राप्त करता है आनुवंशिक लक्षण कहलाता है | उदाहरण: मानव के आँखों व बालों के रंग |
(a) ये लक्षण जीवों में वंशानुगत होते हैं |
(b) ये जनन कोशिकाओं में घटित होते हैं तथा अगली पीढ़ी में स्थानांतरित होते है |
(c) जैव विकास में सहायक हैं |
जाति उदभव : पूर्व स्पीशीज  से एक नयी स्पीशीज का बनना जाति उदभव कहलाता है |
नई स्पीशीज के उदभव के लिए वर्त्तमान स्पीशीज के सदस्यों का परिवर्तनशील पर्यावरण में जीवित बने रहना है | इन सदस्यों को नए पर्यावरण में जीवित रहने के लिए कुछ बाह्य लक्षणों में परिवर्तन करना पड़ता है | अत: प्रभावी पीढ़ी के सदस्यों में शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं जो जनन क्रिया के द्वारा अगली पीढ़ी में हस्तांतरित हो जाते हैं | इस प्रकार नयी स्पीशीज (जाति ) का उदभव होता है |
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* वंशागति का नियम :

* वंशागति का नियम :
मंडल द्वारा प्रस्तुत वंशागति के दो नियम है |
1. एकल संकरण वंशागति तथा विसंयोजन का नियम :
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यह वंशागति का पहला नियम है : किसी जीव के लक्षण आतंरिक कारकों जो जोड़ियों में उपस्थित होते हैं, यह लक्षण इन्ही आंतरिक कारकों द्वारा निर्धारित होते हैं | एक युग्मक में इस प्रकार के कारकों की केवल एक जोड़ी उपस्थित हो सकती है |
2. स्वतंत्र वंशानुगति का नियम :
मैडल के वंशागति के दुसरे नियम को स्वतंत्र वंशागति का नियम कहा जाता है इसके अनुसार : साथ-साथ संकरण में विशेषकों की एक से अधिक जोड़ी की वंशागति में, विशेषकों की प्रत्येक जोड़ी के लिए उत्तरदायी कारक युग्मक स्वतंत्र रूप से बंट जाते हैं |
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