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Tuesday 8 November 2016

* समंजन क्षमता और नेत्र दोष

* समंजन क्षमता और नेत्र दोष

समंजन क्षमता (Power of Accommodation): अभिनेत्र लेंस की वह क्षमता जिसके कारण वह अपनी फोकस दूरी को समायोजित कर लेता हैं समंजन क्षमता कहलाती हैं।

ऐसा नेत्र की वक्रता में परिवर्तन होन पर इसकी फोकस दूरी भी परिवर्तित हो जाती हैं । नेत्र की वक्रता बढ़ने पर फोकस दूरी घट जाती हैं। जब नेत्र की वक्रता घटती हैं तो फोकस दूरी बढ़ जाती है। 

मानव नेत्र की देखने कि सीमा (Limitation of vision) : 25 सेमी से अनंत तक होती है |

किसी वस्तु की स्पष्ट देखने कि न्यूनतम दुरी 25 सेमी है और स्पष्ट देखने कि अधिकतम सीमा अनंत (infinity) होती है |

निकट बिंदु (Near Point) : वह न्यूनतम दुरी जिस पर रखी कोई वस्तु बिना किसी तनाव के अत्याधिक स्पष्ट देखि जा सकती है, सुस्पष्ट देखने की इस न्यूनतम दुरी को निकट-बिंदु कहते हैं |

समान्यत: देखने कि यह न्यूनतम दुरी 25 सेमी होती है |

अत: हमें किसी वस्तु को स्पष्ट देखने के लिए उसे नेत्र से 25 सेमी दूर रखा जाना चाहिए |

दूर बिंदु (Far Point) : वह दूरतम बिंदु जिस तक कोई नेत्र वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकता है, नेत्र का दूर-बिंदु (Far Point)  कहलाता है। सामान्य नेत्र के लिए यह अनंत दूरी पर होता है।

मोतियाबिंद (Cataract) : कभी कभी अधिक उम्र के कुछ व्यक्तियों में क्रिस्टलीय लेंस पर एक धुँधली परत चढ़ जाती है। जिससे लेंस दूधिया तथा धुँधली हो जाता है। इस स्थिति को मातियाबिन्द कहते हैं।

कारण: मोतियाबिंद क्रिस्टलीय लेंस के दूधियाँ एवं धुंधला होने के कारण होता है |

निवारण : इसे शल्य चिकित्सा (surgeory) के द्वारा दूर किया जाता हैं।

दृष्टि दोष : कभी कभी नेत्र धीरे - धीरे अपनी समंजन क्षमता खो देते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति वस्तुओं को आराम से सुस्पष्ट नही देख पाते हैं। नेत्र में अपवर्तन दोषो के कारण दृष्टि धुँधली हो जाती हैं। इसे दृष्टि दोष कहते हैं।

यह समान्यतः तीन प्रकार के होते हैं। इसे दृष्टि के अपवर्तन दोष भी कहा जाता है |

1.    निकट - दृष्टि दोष (मायोपिया)

2.    दीर्ध - दृष्टि दोष (हाइपरमायोपिया)

3.    जरा - दूरदृष्टिता (प्रेसबॉयोपिया)

1. निकट-दृष्टि दोष (Myopia) : निकट-दृष्टि दोष (मायोपिया) में कोई व्यक्ति निकट की वस्तुओं को स्पष्ट देख तो सकता हैं परन्तु दूर रखी वस्तुओं को वह सुस्पष्ट नहीं देख पाता है। ऐसे व्यक्ति का दूर बिन्दु अनंत पर न होकर नेत्र के पास आ जाता हैं । इसमें प्रतिबिम्ब दृष्टि पटल पर न बनकर दृष्टिपटल के सामने बनता है।

कारण:

(i) अभिनेत्र लेंस की वक्रता का अत्याधिक होना | अथवा

(ii)  नेत्र गोलक का लंबा हो जाना।

निवारण: इस दोष को किसी उपयुक्त क्षमता के अपसारी (अवतल ) लेंस के उपयोग द्वारा संशोधित किया जा सकता हैं।

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* मानव नेत्र और उसके भाग

* मानव नेत्र और उसके भाग

मानव नेत्र (Human Eyes): मानव नेत्र एक अत्यंत मूल्यवान एवं सुग्राही ज्ञानेंद्रिय हैं। यह कैमरे की भांति कार्य करता हैं । हम इस अद्भूत संसार के रंग बिरंगे चीजो को इसी द्वारा देख पाते हैं। इसमें एक क्रिस्टलीय लेंस होता है। प्रकाश सुग्राही परदा जिसे रेटिना या दृष्टिपटल कहते हैं इस पर प्रतिबिम्ब बनता हैं । प्रकाश एक पतली झिल्ली से होकर नेत्र में प्रवेश करता हैं। इस झिल्ली को कॉर्निया कहते हैं । कॉर्निया के पीछे एक संरचना होती है। जिसे परितारिका कहते हैं। यह पुतली के साइज को नियंत्रित करती है। जबकि पुतली नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश को नियंत्रित करता हैं। लेंस दूर या नजदीक के सभी प्रकार के वस्तुओं का समायोजन कर वास्तविक तथा उल्टा प्रतिबिम्ब बनाता है।

* नेत्र के विभिन्न भाग परिचय और कार्य:

(1) कॉर्निया या स्वच्छ मंडल (Cornia) : नेत्र की काला दिखाई देने वाला गोलाकार भाग को कॉर्निया कहते हैं | यह नेत्र के डायफ्राम के ऊपर स्थित एक पतली झिल्ली होती है |

कार्य : इसी से होकर नेत्र में प्रकाश प्रवेश करता है | यह नेत्र का सबसे नाजुक भाग होता है |

(2) कंजक्टिवा (conjactiva): अग्र नेत्र का सफ़ेद भाग को sclera कहते है और इसके covering को जो कॉर्निया के चरों ओर फैला रहता है, कंजक्टिवा कहते है | इसे आँख का रक्षात्मक कवच भी कहा जा सकता है |

* कार्य:

(i) यह नेत्र को बाहरी तत्वों से रक्षा करता है |

(ii) नेत्र को चिकनाहट प्रदान करता है |

(iii) यह आँख को बाहरी अघात से भी बचाता है |

(3) परितारिका (Iris) : यह कॉर्निया के पीछे स्थित होता है, यह एक गहरा वलयाकार पेशीय डायफ्राम है |
            
* परितारिका (Iris)

कार्य : यह पुतली के आकार (size) को नियंत्रित करता है |

(4) पुतली (Pupil) : यह परतारिका के वलय से बना एक रिक्त स्थान (छिद्र) है जो परितारिका के केंद्र में होता है और अभिनेत्र लेंस में जा कर खुलता है |
       
कार्य : यह नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश कि मात्रा को नियंत्रित करता है |

जब परितारिका सिकुड़ता है तो पुतली की साइज़ कम हो जाता है और नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश कि मात्रा भी कम हो जाता है | और जब परतारिका फैलता है तो पुतली का साइज़ भी बढ़ जाता है और नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश कि मात्रा भी बढ़ जाता है |

(5) अभिनेत्र लेंस (Eye lens) या क्रिस्टलीय लेंस (Cristalic lens): अभिनेत्र लेंस एक लचीला और मुलायम पदार्थ से बना एक अपारदर्शी उत्तल लेंस है जो विभिन्न दूरियों कि वस्तुओं को फोकसित करने के लिए अपना आकार बदलता रहता है |

कार्य: यह वस्तुओ का वास्तविक और उल्टा प्रतिबिम्ब बनाता है |

(6) पक्ष्माभी पेशियाँ (Cilliary Muscles) : ये पेशियाँ अभिनेत्र लेंस को जकडे रखती है और यह लेंस के आकार (size) को नियंत्रित करती हैं | यदि किसी कारण से इन पेशियों में दुर्बलता आ जाती है तो अभिनेत्र लेंस अपना आकार बदल नहीं पता है और उसकी समंजन क्षमता घट जाती है |
            
पार्श्व दृश्य (lateral view)

पक्ष्माभी पेशियों का कार्य : यह लेंस के आकार (size) को नियंत्रित करती हैं |

(7) काचाभ द्रव (Vitreous Humor) : यह एक जेली जैसी पदार्थ का बना होता है जो अभिनेत्र लेंस और रेटिना से लेकर पुरे नेत्र गोलक में भरा रहता है | नेत्र गोलक का अधिकांश भाग काचाभ द्रव घेरता (occupies) है |

कार्य:

(i) यह नेत्र गोलक को आकार प्रदान करता है |

(ii) रेटिना तक पहुँचने वाला प्रकाश लेंस से होकर इसी द्रव से गुजरता है |

(8) रेटिना (Retina) : इसे दृष्टि पटल भी कहते है और यह नेत्र गोलक का पश्च भाग जो परदे का कार्य करता है रेटिना कहलाता है | यह नेत्र का प्रकाश सुग्राही भाग (Light sensative part) होता है |

रेटिना पर बनने वाले प्रतिबिम्ब कि प्रकृति वास्तविक एवं उल्टा होता है |

कार्य:

(i) यह नेत्र लेंस द्वारा बनने वाले प्रतिबिम्ब के लिए परदे का कार्य करता है |

(ii) इसकी कोशिकाएं प्रकाश सुग्राही होती हैं जो इस पर बनने वाले प्रतिबिम्ब का अध्ययन भी करता है |

(9) दृक तंत्रिका (Optic Nerve) : यह तंत्रिका नेत्र गोलक के पश्च भाग से निकल कर मस्तिष्क के एक हिस्से से जुड़ता है |

कार्य: यह रेटिना पर बनने वाले प्रतिबिम्ब को संवेदनाओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचाता है |

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Saturday 5 November 2016

* लेंस की क्षमता

* लेंस की क्षमता
लेंस की क्षमता : किसी लेंस द्वारा प्रकाश किरणों को अभिसरण और अपसरण करने की मात्रा (degree) को लेंस की क्षमता कहते हैं | यह उस लेंस के फोकस दुरी के व्युत्क्रम के बराबर होता है | इसे P द्वारा व्यक्त किया जाता है और इसका S.I मात्रक डाइऑप्टर (D) होता है |
1 डाइऑप्टर (D) = 1 m या 100 cm के बराबर होता है |
यदि फोकस दुरी (f) को मीटर में व्यक्त करें तो क्षमता जो 'डाइऑप्टर' (Dioptre) में व्यक्त किया जाता है |
उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक (+) होती है |
अवतल लेंस की क्षमता ऋणात्मक (-) होती है |
उदाहरण : मान लीजिये कि एक लेंस की क्षमता + 2 D है | इसका अर्थ यह है कि वह उत्तल लेंस है और उसकी फोकस दुरी (f) + 0.50 m है अर्थात + 50 सेमी है |
और यदि एक अन्य लेंस की क्षमता -2 D है तो वह अवतल लेंस है और उसकी फोकस दुरी (f) - 0.50 m है अर्थात - 50 सेमी है |
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* गोलीय लेंसों द्वारा अपवर्तन

* गोलीय लेंसों द्वारा अपवर्तन
लेंस (Lens) : दो पृष्ठों से घिरा हुआ कोई पारदर्शी माध्यम जिसका एक या दोनों पृष्ठ गोलीय है, लेंस कहलाता है |
उत्तल लेंस (Convex Lens) : वह लेंस जिसके दोनों बाहरी गोलीय पृष्ठों का उभार बाहर की ओर हो उसे उत्तल लेंस कहते हैं | इस लेंस को अभिसारी लेंस भी कहते हैं क्योंकि यह अपने से गुजरने वाले प्रकाश किरणों को अभिसरित कर देता है |
* उत्तल लेंस (Convex Lens)
अवतल लेंस (Concave Lens) : वह लेंस जिसके दोनों बाहरी गोलीय पृष्ठ अंदर की ओर वक्रित हो उसे अवतल लेंस कहते हैं | इस लेंस को अपसारी लेंस भी कहते हैं क्योंकि यह अपने से गुजरने वाले प्रकाश किरणों को अपसरित कर देता है |
* अवतल लेंस (Concave Lens)
वक्रता केंद्र (Centre of curvature) : सभी गोलीय लेंस के प्रत्येक पृष्ठ एक गोले के भाग होते हैं | इन गोलों के केंद्र को लेंस का वक्रता केंद्र कहते है | इसे C1 तथा C2 से दर्शाते हैं |
मुख्य अक्ष (Principle Axis) : मुख्य अक्ष किसी लेंस के दोनों वक्रता केन्द्रों से गुजरने वाली एक काल्पनिक सीधी रेखा लेंस की मुख्य अक्ष कहलाती है।
प्रकाशिक केंद्र (Optic Centre) : लेंस का केन्द्रीय बिंदु इसका प्रकाशिक केंद्र कहलाता है। इसे प्रायः अक्षर O से निरूपित करते हैं।
लेंस के प्रकाशिक केंद्र से गुजरने वाली प्रकाश किरण बिना किसी विचलन के निर्गत होती है।
द्वारक (Aperture) : गोलीय लेंस की वृत्ताकार रूपरेखा का प्रभावी व्यास इसका द्वारक (aperture) कहलाता है।
पतले लेंस : ऐसे लेंस जिनका द्वारक इनकी वक्रता त्रिज्या से बहुत छोटा है। ऐसे लेंस छोटे द्वारक के पतले लेंस कहलाते हैं।
उत्तल लेंस का मुख्य फोकस (Principle Focus) : उत्तल के पर मुख्य अक्ष के समांतर प्रकाश की बहुत सी किरणें आपतित हैं। ये किरणें लेंस से अपवर्तन के पश्चात मुख्य अक्ष पर एक बिंदु पर अभिसरित हो जाती हैं। मुख्य अक्ष पर यह बिंदु लेंस का मुख्य फोकस (Principle Focus) कहलाता है।
अवतल लेंस का मुख्य फोकस (Principle Focus) : अवतल लेंस पर मुख्य अक्ष के समांतर प्रकाश की अनेक किरणें आपतित होती हैं। ये किरणें लेंस से अपवर्तन के पश्चात मुख्य अक्ष के एक बिंदु से अपसरित होती प्रतीत होती हैं। मुख्य अक्ष पर यह बिंदु अवतल लेंस का मुख्य फोकस कहलाता है।
लेंस का फोकस दुरी (Focal Distance) : किसी लेंस के मुख्य फोकस की प्रकाशिक केन्द्र से दूरी फोकस दूरी कहलाती है।
* गोलीय लेंसों के लिए चिन्ह-परिपाटी :
(i) गोलीय लेंसों में सभी दूरियाँ प्रकाशिक केन्द्रों (optic centre) से मापी जाती है |
(ii) उत्तल लेंस की फोकस दुरी धनात्मक (+) होती हैं |
(iii) अवतल लेंस की फोकस दुरी ऋणात्मक (-) होती हैं |
(iv) जिस ओर से प्रकाश लेंस में प्रवेश करता है उस भाग को ऋणात्मक माना जाता है | चाहे वो उत्तल लेंस हो या अवतल लेंस हो | अर्थात जिधर हम बिंब (object) को रखते है वो भाग ऋणात्मक होता है |
(v) लेंस में सभी वास्तविक एवं उल्टा प्रतिबिंब को धनात्मक लेते हैं | और आभासी एवं सीधा प्रतिबिंब को ऋणात्मक लेते है |
(vi) वास्तविक एवं उल्टा प्रतिबिंब लेंस के धनात्मक भाग में बनते हैं और आभासी एवं सीधा प्रतिबिंब लेंस के ऋणात्मक भाग में बनते है |
(vii) बिंब की ऊंचाई (h) सीधा होता है इसलिए इसे धनात्मक (+) लेते हैं | प्रतिबिंब सीधा है तो आभासी और सीधा यदि प्रतिबिंब (h')  उल्टा हो तो वास्तविक और उल्टा इसे ऋणात्मक (-) लेते है |
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* प्रकाश का अपवर्तन

* प्रकाश का अपवर्तन
प्रकाश का अपवर्तन : जब प्रकाश की किरण एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती हैं तो यह अपने मार्ग से विचलीत हो जाती हैं। प्रकाश के किरण को अपने मार्ग से विचलीत हो जाना प्रकाश का अपवर्तन कहलाता हैं ।
प्रकाश का अपवर्तन सिर्फ पारदर्शी पदार्थों से ही होता है | जैसे शीशा, वायु, जल आदि |
प्रकाश के अपवर्तन का कारण : अपवर्तन प्रकाश के एक पारदर्शी माध्यम से दूसरे में प्रवेश करने पर प्रकाश की चाल में परिवर्तन के कारण होता है।
प्रकाश का अपवर्तन का नियम:
* प्रकाश का अपवर्तन के नियम दो हैं |
1. आपतित किरण, अपवर्तित किरण तथा आपतन बिन्दु पर अभिलंब तीनों एक ही तल में होते हैं ।
2. जब प्रकाश की किरण किन्हीं दो माध्यमों के सीमा तल पर तिरछी आपतित होती हैं तो आपतन कोण (i) की ज्या  (sine) तथा  अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता हैं ।
स्नेल का अपवर्तन का नियम (Snell's the law of Refraction) : जब प्रकाश की किरण किन्हीं दो माध्यमों के सीमा तल पर तिरछी आपतित होती हैं तो आपतन कोण (i) की ज्या  (sine) तथा  अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक होता हैं । इस नियम को स्नेल का अपवर्तन नियम भी कहते  हैं |
* अपवर्तन के समय प्रकाश का मार्ग :
जब प्रकाश की किरण एक माध्यम (विरल) से दूसरे माध्यम (सघन) मे जाती हैं तो यह अभिलंब की ओर मुड जाती हैं । जब यही प्रकाश की किरण सघन से विरल की ओर जाती हैं तो अभिलंब से दूर भागती हैं।
सघन माध्यम (Denser Medium): वह माध्यम जिसका अपवर्तनांक अधिक होता है वह सघन माध्यम कहलाता है | इस माध्यम के कण अधिक घने (dense) होते हैं |
विरल माध्यम (Rarer Medium): वह माध्यम जिसका अपवर्तनांक कम होता है वह विरल माध्यम कहलाता है | इस माध्यम के कणों का घनत्व कम होता है |
किसी माध्यम का सघन और विरल होना दो माध्यमों में बीच तुलनात्मक अध्ययन है | यह निर्भर करता है कि कौन सा माध्यम किस माध्यम के सापेक्ष अधिक सघन है और कौन सा विरल है |
* प्रकाश के अपवर्तन से होने वाली परिघतानाएँ:
1. शीशे के गिलास में रखा पेंसिल या चम्मच मुड़ी हुई नजर आना : जब हम किसी शीशे के गिलास में आधा पानी भरकर उसमें एक पेन्सिल को आंशिक रूप से डुबोते है तो यह मुड़ी हुई नजर आती है |  ऐसा प्रकाश के अपवर्तन के कारण होता है | जल की सतह के अंदर की पेन्सिल जो सीधी होनी चहिये मुड़ी हुई नजर आती है | यहाँ प्रकाश के अपवर्तन का वही नियम लागु होता है कि जब कोई प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है तो अभिलंब की ओर मुड़ (झुक) जाती है | 
2. शीशे के गिलास में रखा सिक्का उठा हुआ नजर आना :
ऐसे ही जब हम कोई सिक्का पानी से भरे गिलास में रखते है तो देखते हैं कि सिक्का उठा हुआ नजर आता है ये घटना भी प्रकाश के अपवर्तन के कारण ही होता हैं | अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रकाश के अपवर्तन के कारण सिक्का अपनी वास्तविक स्थिति से थोड़ा-सा ऊपर उठा हुआ प्रतीत होता है।
दूसरा उदाहरण है काँच के बर्तन में रखा निम्बू अपने वास्तविक आकार से बड़ा नजर आता है |
अलग-अलग द्रव्यों (liquids) में पेन्सिल की अथवा प्रकाश का झुकाव अलग-अलग होता है |
जब प्रकाश एक माध्यम से दूसरे माध्यम में तिरछा होकर जाता है तो दूसरे माध्यम में इसके संचरण की दिशा परिवर्तित हो जाती है।
* अपवर्तनांक (Refractive Index) :
जब प्रकाश की किरण एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती  हैं तो यह अपने मार्ग से विचलीत हो जाती हैं। ये विचलन माध्यम और उस माध्यम में प्रकाश की चाल पर निर्भर करता हैं । अतः अपवर्तनांक माध्यमों में प्रकाश की चालों का अनुपात होता है।
"जब प्रकाश की किरण किन्हीं दो माध्यमों के सीमा तल पर तिरछी आपतित होती हैं तो आपतन कोण (i) की ज्या  (sine) तथा  अपवर्तन कोण की ज्या (sine) का अनुपात एक नियतांक (स्थिरांक) होता हैं । इसी स्थिरांक के मान को पहले माध्यम के सापेक्ष दुसरे माध्यम का अपवर्तनांक (refractive index) कहते हैं |
प्रकाश की चाल और अपवर्तनांक : किसी भी माध्यम में प्रकाश की चाल उसके अपवर्तनांक पर निर्भर करता है | माध्यम का 
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* गोलीय दर्पण द्वारा बने प्रतिबिम्ब का निरूपण

* गोलीय दर्पण द्वारा बने प्रतिबिम्ब का निरूपण
• कम से कम दो परावर्तित किरणों के प्रतिच्छेदन से किसी बिंदु बिंब के प्रतिबिंब की स्थिति ज्ञात की जा सकती है।
• प्रतिबिंब के स्थान निर्धरण के लिए निम्न में से किन्हीं भी दो किरणों पर विचार किया जा सकता है।
गोलीय दर्पणों द्वारा परावर्तन के लिए चिन्ह परिपाटी (Sign Convention): 
इसे नई चिन्ह परिपाटी भी कहते हैं :
* इस चिन्ह परिपाटी के अनुसार :
(i) दर्पण के ध्रुव (P) को मूल बिंदु मानते है, अर्थात दर्पण की सभी दूरियां मूल बिंदु (P) से ही मापी जाती हैं |
(ii) निदेशांक ज्यामिति पद्धति के अनुसार मुख्य अक्ष को x-अक्ष (XX') लिया जाता है |
(iii) बिंब सदैव दर्पण के बाईं ओर रखा जाता है। इसका अर्थ है कि दर्पण पर बिंब से प्रकाश बाईं ओर से आपतित होता है।
(iv) मूल बिंदु के दाईं ओर (+ x-अक्ष के अनुदिश) मापी गई सभी दूरियाँ धनात्मक मानी जाती हैं जबकि मूल बिंदु के बाईं ओर (- x-अक्ष के अनुदिश) मापी गई दूरियाँ ऋणात्मक मानी जाती हैं।
दर्पण के सामने के भाग की सभी दूरियाँ ऋणात्मक (-) ली जाती हैं | और दर्पण के पीछे की सभी दूरियाँ धनात्मक (+) ली जाती हैं |
* अवतल दर्पण में : वे सभी दूरियाँ जो दर्पण के सामने होती हैं |
(1) वस्तु की दुरी (u) = - u [ऋणात्मक (-) ली जाती हैं |]
(2) फोकस दुरी (f) = - f [ऋणात्मक (-) ली जाती हैं |]
(3) प्रतिबिंब की दुरी (v) = - v [ऋणात्मक (-) ली जाती हैं, यदि प्रतिबिंब वास्तविक तथा उल्टा बनता हो |]
* उत्तल दर्पण में : वे सभी दूरियाँ जो दर्पण के सामने होती हैं एवं जो पीछे होती हैं |
(1) वस्तु की दुरी (u) = - u [ऋणात्मक (-) ली जाती हैं, वैसे वस्तु हमेशा दर्पण के सामने ही रखा जाता है इसलिए u सदैव ऋणात्मक ही होता है |]
(2) फोकस दुरी (f) = f [धनात्मक (+) ली जाती हैं, क्योंकि उत्तल दर्पण की वक्रता पीछे की ओर होता है इसलिए फोकस दुरी भी दर्पण के पीछे होता है |]
(3) प्रतिबिंब की दुरी (v) = v [धनात्मक (+) ली जाती हैं, यदि प्रतिबिंब वास्तविक तथा उल्टा बनता हो तो ऋणात्मक और आभासी एवं सीधा हो तो धनात्मक ली जाती है |]
उत्तल दर्पण ने सदैव आभासी एवं सीधा प्रतिबिम्ब बनता है दर्पण के पीछे बनता है  |
* दर्पण सूत्र तथा आवर्धन :
बिंब या वस्तु की दुरी : गोलीय दर्पण में दर्पण के सामने रखी वस्तु तथा इसके ध्रुव के बीच की दूरी को बिंब दूरी (u) कहते है। इसे u से दर्शाते हैं |
प्रतिबिम्ब की दुरी: दर्पण के ध्रुव और बने प्रतिबिंब की बीच की दूरी को प्रतिबिंब दूरी (v) कहते हैं | इसे v से दर्शाते हैं |
फोकस दुरी (f) : दर्पण के ध्रुव और मुख्य फोकस के बीच की दुरी को फोकस दुरी कहते हैं |
दर्पण सूत्र : प्रतिबिंब की दुरी (v) का व्युत्क्रम और बिंब की दुरी (u) का व्युत्क्रम का योग फोकस दुरी (f) के व्युत्क्रम के बराबर होता है |
आवर्धन (Magnification): किसी बिंब का प्रतिबिंब कितना गुना बड़ा है या छोटा है यही प्रतिबिंब का आवर्धन कहलाता है |
आवर्धन के लिए बिंब की ऊँचाई धनात्मक ली जाती है, क्योंकि बिंब हमेशा मुख्य अक्ष के ऊपर और सीधा रखा जाता है |
आभासी तथा सीधा प्रतिबिंब के लिए प्रतिबिंब की ऊँचाई (h') धनात्मक (+) ली जाती है और वास्तविक और उल्टा प्रतिबिंब के लिए बिंब कि ऊँचाई (h') ऋणात्मक (-) ली जाती है |
आवर्धन का मान : आवर्धन के मान में धनात्मक मान बताता है कि प्रतिबिंब आभासी और सीधा है | ऋणात्मक मान बताता है कि प्रतिबिंब वास्तविक और उल्टा है |
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* प्रतिबिम्ब की स्थिति, प्रकृति एवं आकार

* प्रतिबिम्ब की स्थिति, प्रकृति एवं आकार
बिम्ब की स्थिति : वह स्थान जहाँ वस्तु रखी गई है |
प्रतिबिम्ब की स्थिति : वह स्थान जहाँ दर्पण द्वारा प्रतिबिम्ब बना है |
प्रतिबिम्ब की साइज़ : यह प्रतिबिम्ब का आकार है जो यह बताता है कि वस्तु का प्रतिबिम्ब
वस्तु से छोटा बना है, बराबर बना है या वस्तु से बड़ा बना है |
प्रतिबिम्ब की प्रकृति : प्रतिबिम्ब की प्रकृति से यह ज्ञात होता है कि दी गई वस्तु का दर्पण द्वरा बनाया गया प्रतिबिम्ब कैसा है - आभासी या वास्तविक और सीधा या उल्टा |
* पप्रतिबिम्ब की प्रकृति दो प्रकार का होता है |
(i) वास्तविक और उल्टा : यह प्रतिबिम्ब सदैव दर्पण के सामने एवं उल्टा बनता है |
(ii) आभासी और सीधा : यह प्रतिबिम्ब सदैव दर्पण के परदे के पीछे एवं सीधा बनता है |
* पअवतल दर्पण द्वारा बनने वाला प्रतिबिम्ब :
अवतल दर्पण में बनने वाली प्रतिबिम्ब वस्तु की स्थिति पर निर्भर करती है | ध्रुव (P) तथा मुख्य फोकस (F) के बीच रखा बिम्ब का ही केवल प्रतिबिम्ब आभासी एवं सीधा बनता है अन्यथा अवतल दर्पण अन्य किसी भी जगह रखी वस्तु का प्रतिबिम्ब वास्तविक एवं उल्टा बनाता है |
• अनंत (infinity) पर रखी वस्तु की प्रतिबिम्ब फोकस F पर वास्तविक एवं उल्टा तथा अत्यधिक छोटा अर्थात बिंदु साइज़ का बनता है |
• वक्रता केंद्र C पर रखी वस्तु की प्रतिबिम्ब फोकस F तथा वक्रता केंद्र C पर वास्तविक एवं उल्टा तथा छोटा बनता है |
• वक्रता केंद्र C पर रखी वस्तु की प्रतिबिम्ब वक्रता केंद्र C पर वास्तविक एवं उल्टा तथा समान साइज़ का बनता है |
• ​वक्रता केंद्र C एवं मुख्य फोकस F के बीच रखी वस्तु की प्रतिबिम्ब C से परे, वास्तविक एवं उल्टा तथा विवर्धित (बड़ा) बनता है |
• मुख्य फोकस पर रखी वस्तु की प्रतिबिम्ब अनंत (infinity) पर वास्तविक एवं उल्टा एवं अत्यधिक विवर्धित (वस्तु से बहुत बड़ा) बनता है |
• ध्रुव (P) तथा मुख्य फोकस (F) के बीच रखा बिम्ब का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे आभासी एवं सीधा और वस्तु से बड़ा बनता है
* पउत्तल दर्पण द्वारा बनने वाला प्रतिबिम्ब :
अवतल दर्पण के उपयोग :
(i) अवतल दर्पणों का उपयोग सामान्यतः टॉर्च, सर्चलाइट तथा वाहनों के अग्रदीपों (headlights) में प्रकाश का शक्तिशाली समांतर किरण पुंज प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
(ii) इन्हें प्रायः चेहरे का बड़ा प्रतिबिंब देखने के लिए शेविंग दर्पणों shaving mirrors) के रूप में उपयोग करते हैं।
(iii) दंत विशेषज्ञ अवतल दर्पणों का उपयोग मरीजों के दाँतों का बड़ा प्रतिबिंब देखने के लिए करते हैं।
(iv)सौर भट्टियों में सूर्य के प्रकाश को केन्द्रित करने के लिए बड़े अवतल दर्पणों का उपयोग किया जाता है।
उत्तल दर्पण का उपयोग :
(i) उत्तल दर्पणों का उपयोग सामान्यतः वाहनों के पश्च.दृश्य (wing) दर्पणों के रूप में किया जाता है।
(ii) ये दर्पण वाहन के पार्श्व (side) में लगे होते हैं तथा इनमें ड्राइवर अपने पीछे के वाहनों को देख सकते हैं जिससे वे सुरक्षित रूप से वाहन चला सके।
(iii) इसका उपयोग टेलिस्कोप में भी होता है |
(iv) उत्तल दर्पण का उपयोग स्ट्रीट लाइट रिफ्लेक्टर के रूप में भी किया जाता है क्योंकि यह एक बड़े क्षेत्र पर प्रकाश प्रसार करने में सक्षम हैं |
वाहनों में साइड मिरर के रूप उत्तल दर्पण को प्राथमिकता:
उत्तल दर्पणों को इसलिए भी प्राथमिकता देते हैं क्योंकि ये सदैव सीध प्रतिबिंब बनाते हैं यद्यपि वह छोटा होता है। इनका दृष्टि.क्षेत्र भी बहुत अधिक है क्योंकि ये बाहर की ओर वक्रित होते हैं। अतः समतल दर्पण की तुलना में उत्तल दर्पण ड्राइवर को अपने पीछे के बहुत बड़े क्षेत्र को देखने में समर्थ बनाते हैं।
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